________________ प्रत्याख्यान नामक नौवें पूर्व से निशीथ का नि!हण हुआ है। उस पूर्व में बीस वस्तु हैं / अर्थात् बीस अर्थाधिकार हैं। उनमें तीसरे वस्तु का नाम आयार है / आयार के भी बीस प्राभतच्छेद हैं / अर्थात् उपविभाग हैं / बीसवें प्राभतच्छेद से निशीथ निर्यहण किया गया है।' __ दशाश्रुतस्कन्धणि के मतानुमार दशाश्रुस्कन्ध, कल्प और व्यवहार ये तीनों आगम प्रत्याख्यान नामक पूर्व से निषूढ हैं और उन तीनों आगमों के निर्दूहका चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहुस्वामी हैं ? यह स्पष्ट उल्लेख प्राप्त है। पञ्चकल्प महाभाष्य में भी दशा, कल्प और व्यवहार के निर्यहक भद्रबाह बतलाये गये हैं और पञ्चकल्पचूणि में प्राचारप्रकल्प (निशीथ) दशा, कल्प और व्यवहार इनचारों आगमों के नियूहका भद्रबाहस्वामी माने गये हैं। यहां पर यह प्रश्न चिन्तनीय है कि नियुक्ति और भाष्य में आचारप्रकल्प का नाम नहीं आया। पर पञ्चकल्पणि में आचारप्रकल्प का नाम कैसे आया ? यह भी सम्भव है कि 'कल्प' शब्द से नियुक्तिकार और भाष्यकार को बहत्कल्प और प्राचारप्रकल्प ये दोनों ही गाह्य हों / जैसे निशीथभाष्य में 'कप्प' शब्द से उन्होंने दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प और व्यवहार इन तीनों आगमों को ग्रहण किया है। सम्भव है आचारचूला और छेदसूत्रों के निर्माता चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु हों। पूर्ववर्ती आचार्यों ने आगम के तीन प्रकार बताये हैं-सुत्तागम, अत्थागम और तदुभयागम / अन्य दृष्टि से आगम के तीन प्रकार और भी हैं-आत्मागम, अनन्तरागम और परम्परागम / व्याख्या ग्रन्थों में इसका विवेचन इस प्रकार प्राप्त होता है। तीर्थकर के लिए अर्थ आत्मागम है। वही अर्थ गणधरों के लिए अनन्तरागम है। गणधरों के लिए सूत्र प्रात्मागम हैं और गणधरशिष्यों के लिए सूत्र अनन्तरागम और अर्थ परम्परागम हैं। गणधर शिष्य के लिए और उसके पश्चात् शिष्यपरम्परा के लिए अर्थ और सूत्र दोनों ही आगम परम्परागम हैं। इनमें आगम का मूल स्रोत, प्रथम उपलब्धि और पारम्परिक उपलब्धि इन तीन दृष्टियों से चिन्तन किया है। प्राचार्य जिनदासगणि महत्तर की दृष्टि से तीर्थकर निशीथ के अर्थप्ररूपक हैं। उनके अर्थ की प्रथम उपलब्धि गणधरों को हई और उस अर्थ की पारम्परिक उपलब्धि उनके शिष्य और प्रशिष्यों को हुई और वर्तमान में हो रही है। 1. स्थविरः श्रुतवृद्ध श्चतुर्दशपूर्वविद्भिः / -आचारांगवृत्ति, पृ. 210 2. णिसीहं णवमा पुन्वा पच्चखाणस्स ततियवत्थूओ। आयार नामधेज्जा, वीसतिमा पाहुडच्छेदा / / -निशीथभाष्य, 6500 3. कतरं सुतं? दसाउकप्पो ववहारो य / कतरातो उद्ध तं ? उच्यते पचक्खाणपुवाओ। --दशाश्रुतस्कन्धचूणि, पत्र 2 वंदामि भद्दबाहुं, पाइणं चरिमसयलसुयनाणि / सुत्तस्स कारगमिसं, दसासु कप्पे य ववहारे / / --दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति 111 तत्तोच्चिय णिज्जूढं, अणुग्गहट्ठाए सपयजतीणं / तो सुत्तकारतो खलु, स भवति दसकप्पववहारो॥ -पंचकल्पमहाभाष्य 11; वृहत्कल्पसूत्रम् षष्ठ वि. प्र. पृ. 2 तेण भगवता आयारपकप्प-दसा-कप्प-व्यबहारा य नवमपुब्बनीसंदभूता निज्जूढा / -पंचकल्पचूणि, पत्र 1, बृहत्कल्प सूत्रम् षष्ठ वि. प्र. पृ 3 कप्प पकप्पा तु सुते................। चणि-कप्पो' त्ति दसाकप्पववहारा / / -निशीथभाष्य, 6395 30 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org