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________________ ग्यारहवां उद्देशक] [229 3. किसी को दूषित दृष्टि से नजर लग जाती है। 4. मक्खियाँ प्रादि जन्तु आहार में गिर जाते हैं। 5. आकाश में उड़ने वाले चिड़िया-बग्गुलि आदि की वीट आदि गिर जाती है / 6. दिन में आहार करने के बाद अनेक प्रकार का परिश्रम किया जाता है, जिससे पसीना अधिक होता है और पानी का अधिक सेवन किया जाता है, फलतः आहार शक्तिवर्धक नहीं रहता है / रात्रिभोजन को प्रशंसा के प्रकार१. आयुबल की वृद्धि होती है / 2. आहार के बाद विश्राम कर लेने से इन्द्रियाँ पुष्ट होतो हैं / 3. शुभ पुद्गलों का अधिक उपचय होने से शरीर शोघ्र जीर्ण नहीं होता है, इत्यादि / इस प्रकार का कथन करने से भिक्षु को गुरुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है। रात्रिभोजन करने का प्रायश्चित्त 73. जे भिक्खू दिया असणं पाणं खाइमं साइमं पडिग्गाहेत्ता दिया भुंजइ, भुजंतं वा साइज्जई। 74. जे भिक्खू दिया असणं पाणं खाइमं साइमं पडिग्गाहेत्ता रति भुजइ, भुजंतं वा साइज्ज। 75. जे भिक्खू रत्ति असणं पाणं खाइमं साइमं पडिग्गाहेत्ता दिया भुजइ, भुजंतं वा साइज्ज। 76. जे भिक्खू रत्ति असणं पाणं खाइमं साइमं पडिग्गाहेत्ता रत्ति भुजइ, भुजंतं वा साइज्जइ। 73 जो भिक्षु दिन में अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य ग्रहण करके (रात्रि में रखकर दूसरे दिन) दिन में खाता है या खाने वाले का अनुमोदन करता है। 74. जो भिक्षु दिन में अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य ग्रहण कर रात्रि में खाता है या खाने वाले का अनुमोदन करता है। 75. जो भिक्षु रात्रि में अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य ग्रहण करके दिन में खाता है या खाने वाले का अनुमोदन करता है। 76. जो भिक्षु रात्रि में प्रशन, पान, खाद्य या स्वाद्य ग्रहण करके रात्रि में खाता है या खाने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।) विवेचनइन सूत्रों में चौभंगी द्वारा रात्रिभोजन का प्रायश्चित्त कहा गया है और इनमें ग्रहण करने के समय का तथा खाने के समय का कथन भी किया है। जिससे रात्रि में प्राहार ग्रहण करने का, रात्रि में खाने का तथा रात्रि में रखकर दिन में खाने का प्रायश्चित्त कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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