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________________ 228] [निशीयसूत्र इससे यह फलित होता है कि ऐसे विरुद्ध राज्य में भिक्षु को एक बार जाना या प्राना अत्यावश्यक हो तो राजाज्ञा या भगवदाज्ञा का उल्लंघन नहीं होता है। विरोध के भी अनेक प्रकार हो सकते हैं। अतः जिन विरोधी क्षेत्रों में जिस समय सर्वथा गमनागमन निषेध हो उस समय वहाँ एक बार भी नहीं जाना चाहिये / किन्तु जहाँ "व्यापारी" आदि के लिये गमनागमन की कुछ छूट हो या विरोधी राज्य के सिवाय अन्यत्र जाने पाने की छूट हो तो वहाँ आवश्यक होने पर जाया जा सकता है। ___ यदि आवश्यक न हो तो ऐसे विरोधी क्षेत्रों में गमनागमन नहीं करना चाहिये। दिवसभोजननिदा तथा रात्रिभोजनप्रशंसा करने का प्रायश्चित्त 71. जे भिक्खू दियाभोयणस्स अवण्णं वयइ, वयंतं वा साइज्जइ / 72. जे भिक्खू राइभोयणस्स वण्णं वयइ, क्यंत वा साइज्जइ / 71. जो भिक्षु दिन में भोजन करने की निन्दा करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। 72. जो भिक्षु रात्रिभोजन करने की प्रशंसा करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है। _ विवेचन-दशवकालिक सूत्र अ. 4 में कथन है कि-भिक्षु रात्रि भोजन का तीन करण तीन योग से जीवन पर्यंत के लिये प्रत्याख्यान करता है / अतः प्रशंसा करने से अनुमोदन के त्याग का भंग होता है। एयं च दोसं वळूण णायपुत्तेण भासियं / / सव्वाहारं न भुजंति णिग्गंथा राइभोयणं // -दशवै. अ. 6. गा. 25 अर्थ–रात्रिभोजन को दोषयुक्त जानकर ज्ञातपुत्र श्रमण भगवान् महावीर ने कहा है कि निर्ग्रन्थ किसी प्रकार का आहार रात्रि में नहीं करते / तात्पर्य यह है कि रात्रिभोजन दोषयुक्त है और भिक्षु के लिये सर्वथा त्याज्य है / . दिवस-भोजन की निन्दा एवं रात्रिभोजन की प्रशंसा करने से भिक्ष रात्रिभोजन का प्रेरक होता है, जिससे तीन करण तीन योग से किया गया रात्रिभोजनप्रत्याख्यान व्रत दूषित हो जाता है और जिनवाणी से विपरीत प्ररूपणा करने का दोष भी लगता है / अतः प्रस्तुत सूत्रद्वय में इनका प्रायश्चित्त कहा गया है। दिवस-भोजन को निन्दा के प्रकार 1. वायु प्रातप आदि से आहार का सत्व शोषित हो जाता है। अत: प्राहार बलवर्धक नहीं रहता है। 2. दूसरों के देखने से ग्राहार का सत्त्व अपहृत हो जाता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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