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________________ 222 निशीथसूत्र मूल में स्वीकार नहीं किया गया तीसरा व छट्ठा सूत्र इस प्रकार हैजे भिक्खू अय-पायाणि वा जाव चम्म-पायाणि वा परिभुजइ, परिभुजंतं वा साइज्जइ // 3 // जे भिक्खू अय-बंधणाणि वा जाव चम्म-बंधणाणि वा परिभुजइ, परिभुजंतं वा साइज्जइ // 6 // सूत्रकथित लोहे आदि के पात्र किस-किस कीमत के ग्रहण करने से कितना-कितना प्रायश्चित्त अाता है तथा किन-किन दोषों की सम्भावना रहती है इत्यादि जानकारी के लिये भाष्य देखें। पात्र हेतु अर्धयोजन की मर्यादा भंग करने का प्रायश्चित्त 5. जे भिक्खू परं अद्धंजोयणमेराओ पायवडियाए गच्छइ, गच्छंतं वा साइज्जइ। 6. जे भिक्खू परं अद्धजोयणमेराओ सपच्चवार्यसि पायं अभिहडं आहटु देज्जमाणं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइजइ। 5. जो भिक्षु आधे योजन से आगे पात्र के लिये जाता है या जाने वाले का अनुमोदन करता है। 6. जो भिक्षु बाधा वाले मार्ग के कारण प्राधे योजन की मर्यादा के बाहर से सामने लाकर दिया जाने वाला पात्र ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन--प्राचारांगसूत्र श्रु. 2, अ. 6, उ. 1 में आधे योजन से आगे पात्र के लिये जाने का निषेध है। अपने ठहरने के स्थान से गवेषणा के लिये जाने की यह क्षेत्र-मर्यादा है कि दो कोस तक जा सकता है। उससे अधिक दूर जाने में एवं पुनः आने में समय की अधिकता तथा अनवस्था प्रादि दोषों को सम्भावना रहती है / अत: पांचवें सूत्र में इसका प्रायश्चित्त कहा है / आचारांगसूत्र श्रु. 2, अ. 6, उ. 1 में सामने लाया हुआ पात्र ग्रहण करने का निषेध है, जिसका प्रायश्चित्त कथन निशीथसूत्र उद्देशक 14 में है / यहाँ छठे सूत्र में विशेष स्थिति का प्रायश्चित्त है। जिस दिशा में पात्र उपलब्ध हो वहाँ जाने का मार्ग सिंह, सर्प या उन्मत्त हाथी आदि से अवरुद्ध हो गया हो या जल से अवरुद्ध हो गया हो और पात्र की यदि अत्यन्त आवश्यकता हो और प्राधा योजन (दो कोस) क्षेत्र में से सामने लाकर दिया जा रहा हो तो ग्रहण करने पर इस सूत्र के अनुसार गुरुचौमासी प्रायश्चित्त नहीं आता है, किन्तु आधा योजन के आगे से सामने लाया गया पात्र ग्रहण करने पर यह प्रायश्चित्त आता है / सूत्र में “सपच्चवायंसि" शब्द है / जिसका "किसी प्रकार की बाधाजनक स्थिति' ऐसा अर्थ होता है / अतः बीमारी आदि कारणों से भी सामने लाया गया पात्र ग्रहण किया जा सकता है किन्तु अर्द्ध योजन की मर्यादा भंग करने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त पाता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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