________________ _ - - [221 ग्यारहवां उद्देशक] लिपि-काल में प्रविष्ट अशुद्धियां समझकर एकरूपता से उपलब्ध आचासंग के पाठ के अनुसार (17) सतरह नाम मूल पाठ में स्वीकार किये हैं जो निशीथ की भी एक प्रति में उपलब्ध हैं तथा प्रश्नव्याकरणसूत्र में भी 17 ही नाम मिलते हैं। पांच नाम छोड़ दिये हैं, जो इस प्रकार हैं 1. रूप्प-पायाणि, 2. जायरूव-पायाणि, 3. कणग-पायाणि, 4. अंक-पायाणि, 5. वइरपायाणि / इन्हें छोड़ने के तीन कारण हैं१. ये पांचों प्राचारांगसूत्र में नहीं हैं / 2. ये पांचों प्रश्नव्याकरणसूत्र में भी किमी प्रति में नहीं हैं। 3. "रुप्प” का “हिरण्ण" में, “जायरूव एवं कणग" का "सुवण्ण' में तथा “अंक एवं वइर" का "हारपुड" में समावेश हो जाता है / हारपुड का अर्थ इस प्रकार है"हारपुडं नाम-अयमाद्याः पात्रविशेषाः मौक्तिकलताभिरूपशोभिताः।" -नि. चू. उ. 11, सू. 1 अर्थ-लोहे अादि (सोना-चांदी आदि) के पात्रविशेष, जो कि मुक्ता आदि से शोभित हैं अर्थात् मुक्ता-रत्न आदि से जड़ित लोहे, सोने, चाँदी आदि के पात्र को हारपुड पात्र समझना चाहिए / अंक और वज्र भी एक प्रकार के रत्नविशेष हैं। अतः हारपुड़ पात्र के अन्तर्गत इन्हें समझ लेना चाहिए। अनेक उपलब्ध प्रतियों में पात्र प्रायश्चित्त के 6 सूत्र मिलते हैं / किन्तु चूर्णिकार ने संख्यानिर्देश करके चार सूत्रों की व्याख्या इस प्रकार की है-- "प्रथमसूत्रे स्वयमेव करणं कज्जइ। द्वितीयसूत्रे अन्यकृतस्य धरणं / ततीयसने अयमादिभिः स्वयमेव बंधं करोति। चतुर्थसूत्रे अन्येन अयमादिभिर्बद्धं धारयति / " -नि. चूणि / चूर्णिकार ने तीसरे-छठे सूत्र का उल्लेख नहीं किया है किन्तु चार सूत्र ही होने का स्पष्ट निर्देश किया है / अतः मूल पाठ में चार सूत्र ही स्वीकार किये हैं। लोहे आदि के पात्र स्वयं करने का आशय यह समझना चाहिये कि-अपने उपयोग में आने के योग्य बनाना / किन्तु मूलतः बनाना साधु के लिये सम्भव नहीं हो सकता। __ 'काष्ठ आदि के पात्र पर लोहे आदि के तार से बंधन करना या कांच ग्रादि को पात्र के किनारे चौतरफ लगाकर उसकी किनार बनाना", इनका बंधन करना समझना चाहिये। इस प्रकार के पात्र या इन बंधनों वाले पात्र रखना व उपयोग में लेना ही धारण करना है। आचारांगसूत्र के समान निशीथसूत्र की एक प्रति में "अण्णयराणि वा तहप्पगाराणि पायाई करेइ, करेंतं वा साइज्जइ" इस प्रकार पाठ मिलता है, किन्तु चूणि व्याख्या में व अनेक प्रतियों में नहीं मिलता है / अतः वह शब्द नहीं रखा है। फिर भी आचारांग में निषेध होने से इस प्रकार के अन्य भी पात्रों के करने एवं रखने का यही प्रायश्चित्त समझ लेना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org