________________ 208] [निशोषसूत्र 2. समर्थ साधु संदेहयुक्त होकर आहार ग्रहण करता है। 3. असमर्थ साधु संदेहरहित होकर आहार ग्रहण करता है। 4. असमर्थ साधु संदेहयुक्त होकर आहार ग्रहण करता है। चरिणकार का कथन है 1. संथडिओ नाम हट्ठ-समत्थो, 2. वितिगिच्छा-विमर्षः-मतिविप्लुता संदेह इत्यर्थः, साणिग्गता वितिमिच्छा जस्स सो निन्वितिगिच्छो भवति। 3. अभादिएहि कारणेहि अदिढे आइच्चे संका भवति–कि उदितो अणुवितो ति। अत्यमणकाले वि कि सूरो धरति न वा ति संका भवति / (सो वितिगिच्छाओ)। 4. छट्टट्ठमादिणा तवेण किलंतो असंथडो, गेलण्णेण वा दुब्बलसरीरो असंथडो, दोहद्घाणेण वा पज्जत्तं अलभंतो असंथडो। 1. संस्तृत अर्थात् स्वस्थ या समर्थ / 2. निर्विचिकित्सा अर्थात् संदेहरहित / 3. बादल आदि कारणों से सूर्य के नहीं दिखने पर शंका होती है कि सूर्योदय हुअा या नहीं अथवा सूर्यास्त के समय सूर्य है या अस्त हो गया, ऐसी शंका होती है / 4. बेले, तेले आदि तप से अशक्त बना हुआ, रुग्णता से दुर्बल शरीर वाला या लम्बे विहार में आहार के अलाभ से क्षुधातुर भिक्षु असंस्तृत कहलाता है। विहार करते समय आगे आहार मिलने की सम्भावना न हो और रात्रि विश्राम जहाँ किया हो उस ग्राम के प्रायः सभी लोग प्रातःकाल ही खेत आदि के लिये जा रहे हों, ऐसे समय में समर्थ (स्वस्थ) साधु भी ग्रहण करने जा सकता है / इसी तरह दूसरे दिन आहारादि मिलने की सम्भावना न हो, ऐसे समय में शाम को भिक्षा लाने का प्रसंग उपस्थित हो सकता है। असमर्थ (ग्लान) के लिये तो ऐसे अवसर सहज सम्भव हैं। बादल या पहाड़ आदि से कभी-कभी सूर्योदय होने या सूर्यास्त न होने का आभास हो सकता है / फिर थोड़ी देर बाद सही स्थिति सामने आ जाती है / ___ संदिग्ध या असंदिग्ध अवस्था में आहार ग्रहण करने के बाद यदि निर्णय हो जाए कि सूर्योदय नहीं हुअा या सूर्यास्त हो गया है, या प्राहार ग्रहण करने के बाद सूर्योदय हुआ है तो वह पाहार साधु को खाना नहीं कल्पता है / खाये जाने पर रात्रिभोजन का दोष लगता है तथा उसका गुरुचौमासी प्रायश्चित पाता है / अत: वह पाहार पात्र में हो या हाथ में हो या मुख में हो, परठ देना चाहिये और हाथ आदि को पानी से धो लेना चाहिये। उदगाल गिलने का प्रायश्चित्त 29. जे भिक्खू राओ वा वियाले वा सपाणं सभोयणं उग्गालं उग्गिलित्ता पच्चोगिलइ, पच्चोगिलंतं वा साइज्जइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org