________________ 206] [निशीथसूत्र 23. जो भिक्षु गुरुप्रायश्चित्त के हेतु को सुनकर या जानकर उस साधु के साथ आहारादि का व्यवहार रखता है या रखने वाले का अनुमोदन करता है। 24. जो भिक्षु गुरुप्रायश्चित्त के संकल्प को सुनकर या जानकर उस साधु के साथ आहारादि का व्यवहार रखता है या रखने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है।) विवेचन--- 1. उग्याइयं ति पायच्छित्तं वहंतस्स, 2. पायच्छित्तमापण्णस्य जाव अणालोइयं ताव "हे" भण्णति, 3. आलोइए अमुगदिणे तुज्झेयं पच्छित्तं दिजिहिति त्ति "संकप्पियं" भण्णति ।-णि। 1. उग्घाइयं-प्रायश्चित्तस्थान सेवन करते समय, 2. हेउं—उसके बाद आलोचना करे तब तक, 3. संकप्पं--प्रायश्चित्त में स्थापित करने का जो दिन निश्चित किया हो उस दिन तक। प्रायश्चित्त स्थान सेवन करने के समय से लेकर प्रायश्चित्त के निमित्त कृत तप के पूर्ण होने तक उस साधु के साथ आहार का आदान-प्रदान करने का निषेध है। प्रायश्चित्त के निमित्त किये जाने वाले तप की जो विशिष्ट विधि होती है, उसमें तो प्रायश्चित्त करने वाले के साथ सभी सामान्य व्यवहार समाप्त कर दिये जाते हैं / किन्तु यहाँ उसके पूर्व की अवस्था में आहार का व्यवहार बंद करने का तीन विभागों द्वारा कथन कर प्रायश्चित्त कहा गया है / तीन सूत्रों में उद्घातिक से सम्बन्धित प्रायश्चित्त कहा गया है और तीन सूत्रों में अनुद्घातिक से सम्बन्धित प्रायश्चित्त कहा गया है / चूर्णिकार ने इन सूत्रों की व्याख्या के प्रारम्भ में ही कहा है कि "एते छः सुत्ता।" इसके बाद उद्घातिक आदि शब्दों का अर्थ किया है। फिर भी इन छ: सूत्रों के कभी बारह सूत्र बन गये हैं जो उपलब्ध सभी प्रतियों में मिलते हैं / सम्भव है बढ़ने का आधार भाष्य गाथा 2887 की चणि में कहे गए भंग हो सकते हैं। वहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि सूत्र तो 6 ही हैं। संयोगसूत्र इन 6 से बना लेना चाहिए, जिनकी संख्या 55 है / सूर्योदय-वृत्तिलंघन का प्रायश्चित्त 25. जे भिक्खू उग्गय-वित्तीए अणथमिय-संकप्पे संथडिए निवितिगिच्छा-समावण्णेणं अप्पाणेणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता आहारं आहारेमाणे, अह पुण एवं जाणेज्जा-अणुग्गए सूरिए, अत्यमिए वा" से जं च मुहे, जं च पाणिसि, जं च पडिग्गहे, तं विगिचेमाणे विसोहेमाणे नाइक्कमह जो तं भुजइ, भुजंतं वा साइज्जइ / - 26. जे भिक्खू उग्गयवित्तीए अणथमिय-संकप्पे संथडिए वितिगिच्छा-समावण्णेणं अप्पाणणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता आहारं आहारेमाणे, अह पुण एवं जाणेज्जा"अणुग्गए सूरिए, अथमिए वा” से जं च मुहे, जं च पाणिसि, जं च पडिग्गहे, तं विगिचेमाणे विसोहेमाणे नाइक्कमइ, जो तं भुजइ, भुजंतं वा साइज्जइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org