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________________ 202] [निशीथसूत्र 5. नक्षत्र, स्वप्न, वशीकरण योग, निमित्त, मन्त्र और भेषज-ये जीवों की हिंसा के स्थान * हैं, इसलिए मुनि गृहस्थों को इनके फलाफल न बताए / निमित्तकथन से जिनाज्ञा का उल्लंघन होता है। साधक संयमसाधना से चलित हो जाता है / सावद्य प्रवृत्तियों का निमित्त बनता है। निमित्तकथन से ही अनेक अनर्थ होने की संभावना रहती है। सूत्रकृतांगसूत्र अ. 12, गा. 10 में बताया है कि "कई निमित्त कई बार सत्य होते हैं तो कई बार असत्य भी हो जाते हैं।" जिससे साधु का यश और द्वितीय महाव्रत कलंकित होता है / शिष्य-अपहरण का प्रायश्चित्त 9. जे भिक्खू सेहं अवहरइ, अवहरंतं वा साइज्जइ / 10. जे भिक्खू सेहं विप्परिणामेइ, विप्परिणामेंतं वा साइज्जइ / 9. जो भिक्षु (अन्य के) शिष्य का अपहरण करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है / 10. जो भिक्षु (अन्य के) शिष्य के भावों को परिवर्तित करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है / ) विवेचन-शिष्य दो प्रकार के होते हैं-१. दीक्षित (साधु) और 2. दीक्षार्थी (वैरागी)। आगे के सूत्रों में दीक्षार्थी सम्बन्धी कथन है अतः यहाँ दीक्षित साधु ही समझना चाहिये। अपहरण -- अन्य के शिष्य को अनुकूल बनाने के लिए अर्थात् प्राकर्षित करने के लिये आहार आदि देना, शिक्षा या ज्ञान देना और उसे लेकर अन्यत्र चले जाना, भेज देना या छिपा देना / विष्परिणमन-शिष्य के या गुरु के अवगुण बताकर निन्दा करना व खुद के गुण बताकर प्रशंसा करना / अन्य के पास रहने की हानियाँ बताकर अपने पास रहने के लाभ बताकर उसके भावों का परिवर्तन कर देना। विपरिणमन और अपहरण में अंतर--१. अपहरण---आकर्षित करके ले जाना / 2. विपरिणमन-गुरु के प्रति अश्रद्धा पैदा करके विचारों में परिवर्तन कर देना, जिससे वह स्वयं गुरु को छोड़ दे। भाष्यकार ने तेरह द्वारों से विपरिणमन का विस्तार किया है तथा शिष्य के पूछने पर या बिना पूछे काया से, वचन से और मन से जिस-जिस तरह निन्दा, गर्दा की जाती है, उसका विस्तृत वर्णन किया है। दिशा-अपहरण का प्रायश्चित्त 11. जे भिक्खू दिसं अवहरइ, अवहरतं वा साइज्जइ। , 12. जे भिक्खू दिसं विप्परिणामेइ, विप्परिणामेंतं वा साइज्जइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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