SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 301
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बसवां उद्देशक] [21 3. कोई परीक्षा करने की दृष्टि से पूछे कि "मैं अभी सुखी हूँ या दुःखी ?" इत्यादि प्रश्नों का उत्तर देना वर्तमान निमित्त कथन है / इसी प्रकार भविष्यकाल के हानि, लाभ, सुख, दुःख, जन्म, मरण सम्बन्धी निमित्त के प्रश्न व उनके उत्तर भी समझ लेने चाहिये। प्रस्तुत प्रकरण में वर्तमान और भविष्य के निमित्त-कथन का गुरुचौमासी प्रायश्चित्त कहा गया है / भूतकाल के निमित्तकथन का लघुचौमासी प्रायश्चित्त तेरहवें उद्देशक में है / निमित्तकथन का निषेध आगमों में भिन्न-भिन्न प्रकार से हुआ है। कुछ उद्धरण इस प्रकार हैं--- 1. "जे लक्खणं च सुविणं च, अंगविज्जं च जे पउजति / ण हु ते समणा वुच्चंति, एवं आरिएहि अक्खायं / / -उत्तरा. अ. 8, गा. 3 2. जे लक्खणं सुविणं पउंजमाणे, णिमित्त कोउहल संपगाढे / कुहेड विज्जासबदारजीवी, न गच्छइ सरणं तम्मि काले // --उत्तरा. अ. 20, गा. 45 3. सयं गेहं परिच्चज्ज, परगेहंसि वावरे / निमित्तेण य ववहरइ, पावसमणे त्ति वुच्चइ / -उत्तरा. अ. 17, गा. 18 4. छिन्नं सरं भोममन्तलिक्खं, सुविणं लक्खण-दण्ड-वत्थ-विज्ज / अंग-वियारं सरस्स विजयं, जे विज्जाहि न जीवई स भिक्खू / / __~-उत्तरा. अ. 15, गा. 7 5. नक्खत्तं सुमिणं जोगं, निमित्तं मंत-भेसजं / गिहिणो तं न आइक्खे, भूयाहिगरणं पयं // -दशवै. अ. 8, गा. 50 1. जो साधक लक्षणशास्त्र, स्वप्नशास्त्र एवं अंगविद्या का प्रयोग करते हैं उन्हें सच्चे अर्थों में श्रमण नहीं कहा जाता, ऐसा तीर्थकरों ने कहा है। 2. जो लक्षणशास्त्र और स्वप्नशास्त्र का प्रयोग करता है, जो निमित्तशास्त्र और कौतुककार्य में लगा रहता है, मिथ्या आश्चर्य उत्पन्न करने वाली प्रास्रवयुक्त विद्याओं से आजीविका करता है, वह मरण के समय किसी की शरण नहीं पा सकता। 3. जो अपना घर छोड़कर दूसरों के घर में जाकर उनका कार्य करता है और निमित्तशास्त्र से शुभाशुभ बताकर जीवन-व्यवहार चलाता है, वह पापश्रमण कहलाता है / 4. जो छेदन, स्वर (उच्चारण), भौम, अंतरिक्ष, स्वप्न, लक्षण, दंड, वास्तुविद्या, अंगस्फुरण और स्वरविज्ञान आदि विद्याओं के द्वारा आजीविका नहीं करता है, वह भिक्षु है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy