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________________ आठवां उद्देशक [175 अपरिमाणाए-- ___ भिक्षाचरी आदि के लिये गया हुआ साधु गृहस्थ के घर में धर्मकथा नहीं कह सकता है। किन्तु अत्यावश्यक प्रश्न का उत्तर संक्षिप्त में दे सकता है-बृहत्कल्प उद्देशक 3 / इसी प्राशय से यहां भी 'अपरिमाणाए' शब्द का प्रयोग सूत्र में किया गया है। भाष्यचूणि आदि में भी इसी प्राशय का कथन है। भाष्यगाथा--'इत्थीणं मज्झम्मि, इत्थीसंसत्ते परिवुडे ताहिं। चउ पंच उ परिमाणं, तेण परं कहंत आणादो // 2430 // 'परिमाणं जाव तिणि चउरो पंच वा वागरणानि, परतो छट्ठादि अपरिमाणं / ' यहां तीन, चार या पाँच पृच्छा या गाथा का कथन परिमित कहा गया है / छ पृच्छा आदि को अपरिमाण कहा है। भिक्षा ले लेने के बाद गृहस्थ के घर में खड़े रहने का निषेध बृहत्कल्प में किया गया है, किन्तु प्रापवादिक स्थिति में वृहत्कल्प सूत्र के अनुसार संक्षिप्त उत्तर देने का विधान भी है / अतः इस सूत्र में 'अपरिमाणाए' शब्द से प्रापवादिक कथन ही समझना चाहिये। ___ साधु के लिये अन्य कथा या विकथा तो सर्वथा निषिद्ध है ही अतः यहां कथा से धर्मोपदेश प्रादि करना ही अपेक्षित है / यदि उचित प्रतीत हो तो रात्रि में उक्त परिषद में संक्षिप्त धर्मकथा या प्रश्न का उत्तर कह सकता है, परिमाण उल्लंघन होने पर ही गुरुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है। निग्रंथी से संपर्क करने का प्रायश्चित्त 11. जे भिक्खू सगणिच्चियाए बा, परगणिच्चियाए बा, णिग्गंथीए सद्धि गामाणुगामं दूइज्जमाणे पुरओ गच्छमाणे, पिट्ठओ रीयमाणे, ओहयमणसंकप्पे चिता-सोयसागरसंपविठे, करयलपल्हत्थमुहे, अट्टज्माणोवगए, विहारं वा करेइ जाव असमणपाउग्गं कहं कहेइ, कहेंतं वा साइज्जइ / ___ अर्थ -- जो भिक्षु स्वगण की या अन्य गण की साध्वी के साथ आगे या पीछे ग्रामानुग्राम विहार करते हुए संकल्प-विकल्प करता है , चिंतातुर रहता है, शोक-सागर में डूबा हुआ रहता है, हथेली पर मुह रखकर प्रार्तध्यान करता रहता है यावत् साधु के न कहने योग्य कामकथा कहता है या कहने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है / ) विवेचन--धर्मकथा या गोचरी के सिवाय जिस तरह स्त्री के साथ संपर्क या परिचय निषिद्ध है उसी तरह साध्वी के साथ भी साधु को स्वाध्याय, सूत्रार्थ वाचन के सिवाय सम्पर्क करना भी निषिद्ध समझना चाहिये। साधारणतया साधु साध्वी को एक दूसरे के स्थान (उपाश्रय) में बैठना या खड़े रहना आदि भी निषिद्ध है-बृहत्कल्प उद्देशा 3, सू. 1-2 / प्रस्तुत सूत्र में साधु साध्वी के साथ विहार का और प्रतिसम्पर्क का निर्देश करके प्रायश्चित्त कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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