________________ 148] [निशीषसूत्र व्याख्यानों में 32 अंगुल का निर्देश मिलता है, उसे फलियों के घेराव के लिए समझना सुसंगत है। 32 अंगुल के घेराव को फलियों का समूह कम से कम 16 अंगुल चौड़ी भूमि का प्रमार्जन करता है / पाँव की लम्बाई 12 से 15 अंगुल तक की प्राय: होती है। जिससे पूजकर चलने का कार्य सम्यक् प्रकार से सम्पन्न हो सकता है / अत: रजोहरण का प्रमाण उसके घेराव की अपेक्षा से समझना चाहिए / 32 अंगुल का प्रमाण रजोहरण की डंडी के विषय में नहीं समझना चाहिए। 9 वर्ष का साधु अढाई फुट की अवगाहना वाला हो सकता है और 20 वर्ष का साधु 6 फुट का भी हो सकता है / सब के लिए डंडी की लम्बाई 32 अंगुल का नियम उपयुक्त नहीं है / 32 अंगुल का घेराव भी एकांतिक न समझकर उत्कृष्ट सीमा का समझ सकते हैं। सूत्रपाठ से तो इतना ही भाव समझना पर्याप्त है कि शरीर तथा पाँव की लम्बाई के अनुसार पूजने का कार्य सम्यक् प्रकार से सम्पन्न हो सके, उतना घेराव या लम्बाई का रजोहरण होना चाहिए / उससे अधिक घेराव अथवा लम्बाई अनावश्यक होने से वह प्रमाणातिरिक्त रजोहरण कहलाता है / उपलक्षण से प्रमाण से कम करना भी दोष व प्रायश्चित्त योग्य समझ लेना चाहिए / 2. सुहुमाइं रयहरणसोसाइ–सम्पूर्ण फलियों के घेराव रूप रजोहरण के प्रमाण के विषय को कहने के बाद उन फलियों के परिमाण का कथन इस पद से हुआ है। रजोहरणशीर्ष अर्थात् फलियों का शीर्षस्थान जो कि डोरे में पिरोया जाता है, वह ज्यादा सूक्ष्म-पतला होगा तो फली भी सूक्ष्म होगी। जिससे कुल फलियों की संख्या ज्यादा होगी तथा सूक्ष्म शीर्षफलियाँ ज्यादा टिकाऊ भी नहीं होती हैं, अत: प्रत्येक फली व उसका शीर्ष स्थान भी सूक्ष्म नहीं होना चाहिए किन्तु वे मध्यम प्रमाण वाले होने चाहिए। 3. 'कंडूसग बंधण'- कंडूसगबंधणं, तज्जइतरेण जो उरयहरणं / बंधति कंडूसो पुण पट्ट उ आणादिणो दोसा // 2175 // भावार्थ-जिस जाति (ऊन आदि) का रजोहरण हो उस जाति के या अन्य जाति के डोरे से फलियों को आपस में बाँधना "कंडूसग बंधन" है और कपड़े की पट्टी से बाँधना "कंडूसग पट्ट" है / ये दोष रूप हैं, अतः इनका प्रायश्चित्त है। भाष्य में कहा है कि रजोहरण की फलियों के जीर्ण होने पर यदि वे टूट कर बिखरती हों तो उनको सम्बद्ध कर देने से बिखरें भी नहीं तथा प्रतिलेखन भी सुविधा से हो सके, यथा-"एतेहि कार हि तमेव थिग्गल-कारेणं सम्बद्धं करेति, जेण एगपडिलेहणा भवति / / 2177 // इस व्याख्या से भी फलियों को एक दूसरी से सम्बद्ध करना यही "कंडूसग बंधन" का अर्थ है। 4. अविहीए-रजोहरण को कपड़े की पट्टी से बाँधना या पूर्ण रजोहरण को एक वस्त्र या थैली में बाँधना तथा दुष्प्रतिलेख्य (प्रतिलेखन के अयोग्य) व दुष्प्रमाj (प्रमार्जन के अयोग्य) हो, इस प्रकार रजोहरण बाँधना 'अविधि बंधन' है। 5. परं तिण्हं-काष्ठदंड से रजोहरण व्यवस्थित रूप में बंधा रहे, इसके लिए तीन स्थानों पर बंधन लगाये जा सकते हैं। तीन से अधिक स्थानपर बंधन लगाना रजोहरण में आवश्यक नहीं है / अविवेक से ज्यादा बंधन लगावे या बिना प्रयोजन एक भी बंधन लगावे तो प्रायश्चित्त पाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org