________________ प्रकार का विभाग प्राप्त नहीं है / पर बाद के ग्रन्थों में छेदशास्त्र और छेदपिण्ड ये नाम प्राप्त होते हैं / सम्भव है दिगम्बर परम्परा में भी प्रायश्चित्त के अर्थ में ही छेद शब्द व्यवहत रहा हो। छेदशास्त्र और छेदपिण्ड दोनों ही ग्रन्थों में प्रायश्चित्त का निरूपण है। छेदपिण्ड में प्रायश्चित्त के आठ पर्यायवाची नामों का उल्लेख है'(१) प्रायश्चित्त, (2) छेद, (3) मलहरण, (4) पापनाशन, (5) बोधि, (6) पुण्य, (7) पवित्र, (8) पावन / छेदशास्त्र में भी प्रायश्चित्त और छेद इन दोनों शब्दों को पर्यायवाची स्वीकार किया है। सारांश यह है कि छेदसूत्र प्रायश्चित्तसूत्र हैं। ___ समाचारीशतक में आचार्य समयसुन्दरगणि ने छेदसूत्रों की संख्या छह बतलाई है3 --(1) दशाश्रुतस्कन्ध, (2) व्यवहार, (3) बृहत्कल्प, (4) निशीथ, (5) महानिशीथ, (6) जीतकरूप / इनमें से पांच-छह सूत्रों के नाम का उल्लेख प्राचार्य देववाचक ने नन्दीसूत्र में किया है।४ विज्ञों का मन्तव्य है कि जीतकल्प जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की कृति है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का समय वि. सं. 650 के लगभग है। जिसका निर्माण नन्दीसूत्र की रचना के पश्चात हा है। अतः उसे आगम की कोटि में स्थान नहीं दिया जा सकता। महानिशीथसूत्र को दीमक ने खाकर नष्ट कर दिया था। अतः वर्तमान में उसकी मूल प्रति अनुपलब्ध है। प्राचार्य हरिभद्रसूरि ने पुनः उसका उद्धार किया था। अतः वर्तमान में उपलब्ध महानिशीथ भी प्रागम की कोटि में नहीं आता। इस प्रकार मौलिक छेदसूत्र चार हैं-(१) दशाश्रुतस्कन्ध, (2) व्यवहार, (3) बृहत्कल्प, (4) निशीथ / छेदसूत्रों में निशीथ का प्रमुख स्थान है / निशीथ का अर्थ अप्रकाश्य है। यह सूत्र अपवादबहुल है / अतः हर किसी व्यक्ति को नहीं पढ़ाया जाता था। जिनदासमणि महत्तर ने तीन प्रकार के पाठक बताये हैं-(१) अपरिणामक, (2) परिणामक, (3) अतिपरिणामक / अपरिणामक का अर्थ है जिसकी बुद्धि अपरिपक्व है। परिणामक का अर्थ है जिसकी बुद्धि परिपक्व है। अतिपरिणामक का अर्थ है जिसकी बुद्धि कुतर्क पूर्ण है / अपरिणामक और अतिपरिणामक ये दोनों पाठक निशीथ पढ़ने के अधिकारी हैं। जो पाठक आजीवन रहस्य को धारण कर सकता है वही प्रबुद्ध पाठक निशीथ पढ़ने का अधिकारी हैं। यहां पर जो रहस्य शब्द है वह इसकी गोपनीयता को प्रकट करता है। निशीथ का अध्ययन वही साधु कर सकता है जो तीन वर्ष का दीक्षित हो और गाम्भीर्य आदि गुणों से युक्त हो / प्रौढता की दृष्टि से बगल में बाल वाला सोलह वर्ष का साधु ही निशीथ का वाचक हो सकता है।' 1. पायच्छित्तं छेदो मलहरणं पावणासणं सोही। पुण्ण पवित्तं पावणामिदि पायाछित्तनामाई छेदपिण्ड, गाथा 3 छेदशास्त्र गाथा 2 3. समाचारी शतक: आगम स्थापनाधिकार / 4. कालियं प्रगविहं पण्णतं, तं जहा-दसाओ, कप्पो, ववहारो, निसीहं, महानिसीहं। -नन्दीसूत्र 70 5. महानिशीथ अध्ययन 3 जे होति अप्पगासं तं तु णिसीहं ति लोग संसिद्ध / जं अप्पगासम्म अण्णे पितयं निसीधं ति // -निशीथभाष्य, श्लोक 64 7. पुरिसो तिबिहो परिणामगो, अपरिणामगो, प्रतिपरिणामगो, तो एत्य अपरिणामग प्रतिपरिणामगाणं पडिसेहो / / -निशीथणि, पृ. 165 निशीथभाष्य 6702-3 9. (क) निशीथचूणि, गाथा 6165 (ख) व्यवहारमाष्य, उद्देशक 7, गा. 202-3 (म) व्यवहारसूत्र, उद्देशकः 10, गाथा 20-21 22 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org