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________________ चतुर्थ उद्देशक] 11. पंच ठाणाइं समणेणं भगवया महावोरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वणियाई, णिच्चं कित्तियाई, णिच्चं बुइयाई, णिच्चं पसत्थाई, णिच्चं अब्भणुण्णायाई भवंति / तं जहा—१. अरसाहारे, 2. विरसाहारे, 3. अंताहारे, 4. पंताहारे, 5. लूहाहारे / -ठाण. अ. 5 इस सूत्र के पूर्व कई प्रतियों में अदत्त आहार लेने के प्रायश्चित्त का एक सूत्र है जो भाष्य और चूर्णिव्याख्या के बाद लिपिदोष या अन्य किसी प्रकार से आ गया है / तेरापंथ महासभा से प्रकाशित "निसीहझयण" में भी यह सूत्र नहीं लिया गया है। स्थापनाकुल की जानकारी किये बिना भिक्षार्थ प्रवेश करने पर प्रायश्चित्त 33. जे भिक्खू 'ठवणाकुलाई' अजाणिय, अपुच्छिय, अगवेसिय, पुन्यामेव गाहावइ कुलं पिंडवाय पडियाए अणप्पविसइ, अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ / जो भिक्षु "स्थापनाकुलों" की जानकारी किये बिना, पूछे बिना या गवेषणा किये बिना ही आहार के लिये गृहस्थ के घरों में प्रवेश करता है या प्रवेश करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त पाता है।) विवेचन—“स्थापनाकुल'"---भिक्षा के लिये नहीं जाने योग्य कुल / वे कुल कई प्रकार के होते हैं 1. अत्यन्त द्वेषी कुल सर्वथा त्याज्य होते हैं। 2. अत्यन्त अनुराग वाले कुल, 3. उपाश्रय के निकट रहने वाले कुल, 4. बहुमूल्य पदार्थ या विशिष्ट औषधियों की उपलब्धि वाले कुल साधारण साधुओं के लिये वर्ण्य होते हैं / बाल, ग्लान, वृद्ध, प्राचार्य, अतिथि आदि के लिये आवश्यक होने पर विशिष्ट अनुभवी गीतार्थ साधु ही इन घरों में भिक्षा के लिये जा सकते हैं। विशाल साधुसमूह के साथ-साथ विचरण करते समय या वृद्धावास में रहे हुए साधुओं में से पृथक्-पृथक् गोचरी लाने वालों की अपेक्षा से यह कथन है / अजाणिय अपुच्छिय अगवेसिय-बिना पूछे स्वतः ही किसी के कह देने से या प्रत्यक्ष व परोक्ष ज्ञान से "जानकारी" होती है। जानकारी न हो तो पूछकर जानकारी करना चाहिये। नाम गोत्र जाति आदि पूछना "पृच्छा" कही जाती है / चिह्नों से या संकेतों से घर का ठिकाना समझना"गवेषणा" कही जाती है। अथवा पूर्व परिचित के लिये “पृच्छा" होती है और अपरिचित की अपेक्षा "पृच्छा युक्त गवेषणा" होती है। जानकारी किये बिना गोचरी के लिये जाने पर स्थापनाकुलों में जाने की संभावना रहती है, जिससे अव्यवस्था और अदत्त दोष के साथ आवश्यकता के समय विशिष्ट पदार्थ की प्राप्ति दुर्लभ हो सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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