________________ 96] [निशीथसूत्र किसी की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए या किसी का अहित करने के लिए या स्वार्थ से वश में करना अप्रशस्त कारण है / इसका प्रायश्चित्त अधिक है। सूयगडाँग सूत्र श्रु० 1, अ० 2, उ० 2, गा० 18 में भी यह बताया है कि"संसम्गि असाहु राइहिं, असमाही उ तहागयस्स वि / " 'संयम साधना में लगे हुए साधक के लिए राजानों का परिचय तथा उनकी संगति ठीक नहीं है क्योंकि इनका परिचय या संगति संयम में असमाधि पैदा करने का कारण है / अतः साधक को इन विशिष्ट व्यक्तियों के साथ व्यक्तिगत सम्पर्क नहीं करना चाहिए। धर्मश्रवण आदि के लिए राजा आदि स्वतः पावें तो उन्हें धर्मानुरागी बनाने में कोई दोष नहीं है / राजा आदि की प्रशंसा करने का प्रायश्चित्त-- 6. जे भिक्खू "रायं" "अच्चीकरेइ" अच्चीकरतं वा साइज्जइ / 7. जे भिक्खू "रायारक्खियं" अच्चीकरेइ, अच्चीकरेंतं वा साइज्जइ / 8. जे भिक्खू "नगरारक्खियं" अच्चीकरेइ, अच्चीकरेंतं वा साइज्जइ / 9. जे भिक्खू "निगमारक्खियं" अच्चीकरेइ, अच्चीकरतं वा साइज्जइ / 10. जे भिक्खू "सवारक्खियं" अच्चीकरेइ, अच्चोकरेंतं वा साइज्जइ / 6. जो भिक्षु राजा की प्रशंसा-गुण-कीर्तन करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है / 7. जो भिक्षु राजा के अंगरक्षक की प्रशंसा–गुणकीर्तन करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है / 8. जो भिक्षु नगररक्षक की प्रशंसा-गुणकीर्तन करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। 9. जो भिक्षु निगमरक्षक की प्रशंसा-गुणकीर्तन करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है / 10. जो भिक्षु सर्वरक्षक की प्रशंसा-गुणकीर्तन करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन—अच्चीकरेइ--राजा के सामने या पीछे उसके वीरता आदि गुणों की प्रशंसा करना / ये सूत्र अत्तीकरेइ सूत्रों से सम्बन्धित हैं। अर्थात वश में करने के एक तरीके का कथन इस सूत्र में हुआ है / वस्तुतः किसी भी व्यक्ति को अपना बनाने का सबसे सरल तरीका यह है कि उसके सामने या पीछे उसकी प्रशंसा की जाय / अतः ये "अच्चीकरेइ के प्रायश्चित्त सूत्र भी" अत्तीकरेइ सूत्र के पूरक हैं, ऐसा समझना चाहिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org