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________________ [निशीथसूत्र कानखजूरा, चूहे, बिच्छ, सर्प आदि की अधिक उत्पत्ति हो तो पाट-घास आदि अवश्य ग्रहण करने चाहिये / अन्यथा जीवविराधना, संयमविराधना व आत्मविराधना हो सकती है। चातुर्मास में गीली या नमी वाली जमीन पर सोने से उपधि अधिक मलीन होगी। जिससे गोचरी आदि प्रसंगों में वर्षा पा जाने पर अप्काय की विराधना होगी, अन्यथा उपधि के अधिक मलीन होने पर जीवों की उत्पत्ति होगी। मलिनता के कारण उपधि के शीतल और जूत्रों से युक्त होने से निद्रा नहीं आएगी। अनिद्रा से अजीर्ण होगा और अजीर्ण होने पर रोग उत्पन्न होंगे / अतः गीली या नमी युक्त भूमि होने पर पाट, घास आदि अवश्य ग्रहण करने चाहिये। यहां विवेचन में जूओं की उत्पत्ति का निर्देश किया गया है। आगमों में साधु को 'जल्ल परिषह' सहन करने का तथा स्नान न करने का कथन है / प्रतिक्रमण में निद्रा-दोषशुद्धि के पाठ में "छप्पइसंघट्टणाए" का निर्देश भी है / फिर भी उपरोक्त विवेचन से समझना यह है कि चातुर्मास में वर्षा होने के प्रसंग के कारण व वस्त्रों को धूप न लगने से जूओं की उत्पत्ति की विशेष संभावना रहती है, इसलिये ऐसे समय में उपधि को मलिन न रखना और मलिन न हो इसका भी ध्यान रखना उचित है / अतः आवश्यक शय्या-संस्तारक ग्रहण कर लेने चाहिये। वर्षा से भीगते हुए शय्या-संस्तारक के न हटाने का प्रायश्चित्त 52. जे भिक्खू उउबद्धियं वा वासावासियं वा सेज्जासंथारयं उवरि सिज्जमाणं पेहाए न ओसारेइ, न ओसारेंतं वा साइज्जइ / 52. जो भिक्षु शेषकाल या वर्षावास के लिये ग्रहण किये हुए शय्या-संस्तारक को वर्षा से भीगता हुआ देखकर भी नहीं हटाता है या नहीं हटाने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त प्राता है।) विवेचन--"उवरि सिज्जमाणं" वर्षा से भीगते हुओं को। इस सूत्र का आशय यह है कि शय्या-संथारा आदि प्रत्यर्पणीय कोई भी उपधि वर्षा आदि से भीग रही है, ऐसी जानकारी होते ही उसे हटाकर सुरक्षित स्थान में रखना कल्पता है और नहीं हटाना यह प्रायश्चित्त का कारण है। ___ स्वयं की उपधि को तो कोई भी भीगने देना नहीं चाहता किन्तु पुनः लौटाने योग्य शय्यासंस्तारक आदि को भीगते हुए देखकर भी हटाने में उपेक्षा होने की ज्यादा संभावना होने से उसका निर्देश सूत्र में किया गया है। फिर भी उपलक्षण से सभी प्रकार की उपधि के विषय में समझ लेना चाहिये। यद्यपि वर्षा में जाना विराधना का कारण है, किन्तु नहीं हटाने में अनेक अन्य दोषों की संभावना होने से उसकी उपेक्षा करने का प्रायश्चित्त बताया है। भीग जाने से उपधि का कुछ समय अनुपयुक्त हो जाना, प्रतिलेखन के अयोग्य हो जाना, फूलन हो जाना, कुथुवे आदि जीवों की उत्पत्ति हो जाना, अप्काय की विराधना भी होना, जिसकी वस्तु है उसे मालूम पड़ने पर उसका नाराज होना, निंदा करना आदि दोष संभव हैं तथा इस प्रकार उपेक्षा करने से शय्या-संस्तारक मिलना भी दुर्लभ हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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