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________________ दूसरा उद्देशक] [55 तीनों सूत्रों का भावार्थ यह कि शय्यातर को तथा उसके घर को जाने बिना खुद की मुख्यता से गोचरी नहीं जाना, शय्यातर की दलाली से आहार प्राप्त नहीं करना अथवा उसके हाथ से आहारादि नहीं लेना तथा शय्यातर पिंड नहीं भोगना / चौथा सूत्र मानने पर ग्रहण भी प्रायश्चित्त योग्य होता है। शय्या-संस्तारक के कालातिक्रमण का प्रायश्चित्त 50. जे भिक्खू उउबद्धियं सेज्जासंथारयं परं पज्जोसवणाओ उवाइणावेइ, उवाइणावेंतं वा साइज्जइ। 51. जे भिक्खू वासावासियं सेज्जासंथारयं परं दस रायकप्पाओ उवाइणावेह, उवाइणावेतं वा साइज्जइ। 50. जो भिक्षु शेष काल अर्थात् मासकल्प के लिये ग्रहण किये हुए शय्या-संस्तारक को पर्युषण (संवत्सरी) के बाद रखता है या रखनेवाले का अनुमोदन करता है। 51. जो भिक्षु वर्षावास चौमासे के लिये ग्रहण किये हुये शय्या-संस्तारक को चौमासे के बाद दस दिन से अधिक रखता है या रखने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन-आषाढ महीने में कुछ दिन रहने के लिये जिस क्षेत्र में साधु ने मकान या पाट आदि ग्रहण किये हों और कारणवश उसे उसी क्षेत्र में चातर्मास के निमित्त रहना लिये उनकी पुनः आज्ञा प्राप्त करनी चाहिये या मालिक को लौटा देने चाहिये / यदि संवत्सरी तक भी पुनः उनकी आज्ञा प्राप्त न करे और न लौटावे तो उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। इसी तरह चातुर्मास के लिये शय्या-संस्तारक ग्रहण किये हों और चातुर्मास के बाद किसी शारीरिक कारण से विहार न हो सके तो दस दिन के अन्दर उन शय्या-संस्तारकों की पुनः प्राज्ञा प्राप्त कर लेनी चाहिये या लौटा देना चाहिये। विभिन्न आगमों के अनेक स्थलों में "अल्प उपधि" का निर्देश मिलता है। अतः यथाशक्य शरीर या संयम सम्बन्धी अत्यन्त आवश्यकता के बिना पाट-धास आदि ग्रहण नहीं करने चाहिये, क्योंकि लाना, देना, प्रतिलेखन करना, प्रमार्जन करना आदि कार्यों से स्वाध्याय की हानि होती है। आवश्यकता होने पर शेष काल में या चातुर्मास में कभी भी पाट, घास आदि उपकरण ग्रहण किये जा सकते हैं / उसका कोई प्रायश्चित्त नहीं है किन्तु जितनी अवधि के लिये ग्रहण हों उस अवधि का उल्लंघन नहीं होना चाहिये तथा सूत्रनिर्दिष्ट समय के पूर्व पुनः प्राज्ञा प्राप्त कर लेनी चाहिये। भाष्य चूणि में पाट, घास आदि ग्रहण करने के आवश्यक कारण कहे हैं / उनका सारांश इस प्रकार है। मकान की भूमि गीली या नमी युक्त हो, जिससे कि उपधि के बिगड़ने की और शरीर के अस्वस्थ होने की संभावना हो / चीटियां, कुथुवे आदि जीवों की विराधना होती हो / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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