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________________ 46] [निशीथसूत्र नित्य निवास प्रायश्चित्त--- 37. जे भिक्खू "नितियं वास" वसइ वसंतं वा साइज्जइ / 37. जो भिक्षु मासकल्प व चातुर्मासकल्प की मर्यादा को भंग करके नित्य एक स्थान पर रहता है या रहने वाले का अनुमोदन करता है / ( उसे लधुमासिक प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन-कल्प-मर्यादा के सम्बन्ध में प्राचा. श्रु. 2, अ. 2, उ. 2 के अनुसार दो क्रियायें दोषरूप कही गई हैं-१. कालातिक्रान्त क्रिया 2. उपस्थान क्रिया / कालातिकान्त क्रिया एक क्षेत्र में एक मासकल्प (29 दिन) रहने के बाद भी वहां से विहार न करे तथा एक क्षेत्र में चातुर्मासकल्प (आषाढ पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक) रहने के बाद भी वहां से बिहार न करे तो 'कालातिकान्त क्रिया' नामक दोष लगता है। उपस्थान क्रिया एक क्षेत्र में एक मासकल्प रहने के बाद दो मास अन्यत्र बिताये बिना वहीं आकर रहे तो तथा एक क्षेत्र में चातुर्मासकल्प रहने के बाद अाठ मास अन्यत्र बिताये बिना वहीं आकर रहे तो 'उपस्थान क्रिया' नामक दोष लगता है / इन दोनों क्रियाओं का सेवन करना ही 'नित्यवास' माना गया है, इसी नित्यवास का सूत्रोक्त लघुमास प्रायश्चित्त है। नित्यवास-निषेध एवं उसके प्रायश्चित्त-विधान का मूल हेतु यह है कि अकारण निरन्तर नित्यनिवास से अतिपरिचय होता है, उससे अवज्ञा या अनुराग दोनों हो सकते हैं और रागवृद्धि से चारित्र की स्खलना होना अनिवार्य है। इसलिए मासकल्प या चातुर्मासकल्प से दुगुना काल अन्यत्र विचरना अत्यावश्यक है। दशवकालिक द्वितीय चूलिका गाथा. 11 के अनुसार चातुर्मासकल्प वाले क्षेत्र में एक वर्ष पर्यन्त पुनः न जाने की कालगणना इस प्रकार है चातुर्मासकल्प के चार मास, उससे दुगुना आठ मास बीतने पर पुनः चातुर्मासकल्प आ जाने से तिगुना काल हो जाता है / इस कल्पमर्यादा का पालन आवश्यक है। आगमों में कल्प उपरांत रहने का कहीं भी आपवादिक विधान उपलब्ध नहीं है, किन्तु यहां भाष्य गाथा 1021-1024 तक ग्लान अवस्था आदि परिस्थितियों में तथा ज्ञानादि गुणों की वृद्धि हेतु नित्यवास को दोष रहित कहा है तथा उस भिक्षु को जिनाज्ञा एवं संयम में स्थित माना है / नित्यनिवास की विस्तृत व्याख्या जानने के लिए भाष्य देखें। पूर्व-पश्चात् संस्तव-प्रायश्चित्त 38. जे भिक्खू पुरेसंथवं वा, पच्छासंथवं वा करेइ, करेंतं वा साइज्जइ / जो भिक्षु भिक्षा लेने के पहले या पीछे दाता की प्रशंसा करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है, (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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