SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दूसरा उद्देशक] [45 अनाचार' माना जाता है। उसका अर्थ भी दोनों के अर्थ से भिन्न किया जाता है, जिसका कि कोई प्राचीन प्राधार नहीं है। नियागपिंड की व्याख्या के विषय में आचारांग, दशवकालिक तथा निशीथसूत्र के व्याख्याकार . एक मत हैं / यथानियाग-प्रतिनियतं जं निबंधकरणं, ण तु जं अहासमावत्तीए दिणेदिणे भिक्खागहणं / -दश. अ. 3 चूर्णि [अगस्त्यसिंहसूरि "नियागं" नित्यामंत्रितस्य पिंडस्य ग्रहणं न तु नित्यं अनामंत्रितस्य / " -दश. अ. 3 टीका--हरिभद्रीय "आमंत्रितस्य पिंडस्य ग्रहणम् / " --प्राचा. श्रु. 2, अ. 1 उ. 1 दीपिका नित्यपिण्ड की प्रचलित मान्यता यह है कि "अाज जिस घर से साधु या साध्वियाँ आहारपानी लें उस घर से दूसरे दिन वे और उनके साम्भोगिक साधु-साध्वी प्राहार पानी न लें" किन्तु आगमों के वर्णकों में वर्णित 'समूह विहार' तथा प्रत्येक संघाडे की विभक्त गोचरी के वर्णनों से भी वर्तमान में प्रचलित नित्यपिण्ड की व्याख्या संगत सिद्ध नहीं होती। प्राचीन काल में पांच सौ या हजार साधुओं के साथ श्रमणों का समूह-विहार होता था। यथा--रायपसेणी में वर्णित-केशीकुमार श्रमण का बिहार "पंचहि अणगारसएहि सद्धि संपरिवुडे" पांच सौ अणगारों के साथ होता था। __ ज्ञाताधर्मकथा अ. 5 में वर्णित थावच्चापुत्र अणगार का विहार "सहस्सेणं अणगारेणं सद्धि पुव्वाणुपुचि चरमाणे" एक हजार अणगारों के साथ होता था। उनमें से दो-दो साधु के सौ संघाडे भी यदि आहार-पानी करने वाले हों तो किस गृहस्थ के घर से किस अणगार ने किस दिन आहार-पानी लिया है, यह सबकी स्मृति में रहना सम्भव नहीं लगता। जिस दिन जिस संघाडे ने जिस घर से आहार-पानी लिया है दूसरे दिन उसी घर से अन्य संघाडे द्वारा प्राहार-पानी लेना प्रायः सम्भव है बल्कि अंतगडसूत्र वणित अनीकसेन आदि के समान उसी दिन भी लेना सम्भव रहता है। ऐसी स्थिति में दश. अ. 3, गाथा. 2 की टीका में उक्त नियागपिण्ड की तथा निशीथ उद्दे. 2 में उक्त नित्याग्रपिण्ड की चणि एवं भाष्य की व्याख्या के अनुसार--"आदर पूर्वक निमंत्रण पाकर साधु यदि प्रतिदिन एक ही घर से आहार-पानी ले तो नियागपिण्ड है और निमंत्रण बिना कई दिन लगातार एक घर से शुद्ध गवेषणा पूर्वक आहार-पानी ले तो नियागपिण्ड नहीं है" यह व्याख्या ही उपयुक्त है और प्राचीन काल के समूह विहार तथा प्रत्येक संघाडे की विभक्त गोचरी और ग्रहीत आहार अन्य को निमंत्रण करने की पद्धति से भी उचित एवं संगत होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy