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________________ मगवान के अन्तेवासी] [23 उसका सत्कार किया, आदरपूर्ण चनों से सम्मान किया। यों सत्कार तथा सम्मान कर उसने कहा २१-जया णं देवाणप्पिया! समणे भगवं महावीरे इहमागच्छेज्जा, इह समोसरिज्जा, इहेव चंपाए णयरीए बहिया पुणभद्दे चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरेज्ज, तया णं मम एयमझें निवेदिज्जासित्ति कटु विसज्जिए। २१-देवानुप्रिय ! जब श्रमण भगवान् महावीर यहाँ पधारें, समवसृत हों, यहाँ चम्पानगरी के बाहर पूर्णभद्र चैत्य में यथाप्रतिरूप-समुचित-साधुचर्या के अनुरूप प्रावास-स्थान ग्रहण कर संयम एवं तप से प्रात्मा को भावित करते हुए विराजित हों, मुझे यह समाचार निवेदित करना। यों कहकर राजा ने वार्तानिवेदक को वहाँ से विदा किया / भगवान् का चम्पा में आगमन २२-तए णं समणे भगवं महावीरे कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए, फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियंमि अहपंडुरे पहाए, रत्तासोगप्पगास-किसुघ-सुयमुह-गुजद्धरागसरिसे, कमलागरसंडबोहए उद्वियम्मि, सूरे सहस्सरस्सिम दिणयरे तेयसा जलंते, जेणेव चंपा णयरी, जेणेव पुण्णमद्दे चेइए, तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिणिहत्ता संजमेणं तबसा अप्पाणं भावेमाणे विहर। २२-तत्पश्चात् अगले दिन रात बीत जाने पर, प्रभात हो जाने पर, नीले तथा अन्य कमलों के सुहावने रूप में खिल जाने पर, उज्ज्वल प्रभायुक्त एवं लाल अशोक, किंशुक-पलाश, तोते की चोंच, धुचची के आधे भाग के सदश लालिमा लिये हुए, कमलवन को उद्बोधित-विकसित करने वाले, सहस्रकिरणयुक्त, दिन के प्रादुर्भावक सूर्य के उदित होने पर, अपने तेज से उद्दीप्त होने पर श्रमण भगवान् महावीर, जहाँ चम्पा नगरी थी, जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ पधारे / पधार कर यथाप्रतिरूप—समुचित साधुचर्या के अनुरूप आवास-स्थान ग्रहण कर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए विराजे / भगवान के अन्तेवासी 23 तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे समणा भगवंतो अप्पेगइया उग्गपव्वइया, भोगपव्वइया, राइण्ण-णायकोरन्वखत्तियपटवइया, भडा, जोहा, सेणावई पसस्थारो, सेट्ठी, इन्भा, अण्णे य बहने एवमाइणो उत्तमजाइकुलरूवधिणयविण्णाणवण्णलावण्णविक्कमपहाणसोभग्गकतिजुत्ता, बहुधणधष्णणिचयपरियालफिडिया, गरवइगुणाइरेगा, इच्छियभोगा, सुहसंपललिया किपागफलोवमं च मुणिय विसयसोक्खं जलजुन्यसमाणं, कुसग्गजलबिन्दुचंचलं जीवियं य पाऊण अद्धवमिणं रयमिव पडग्गलग्गं संविधुणित्ताणं चइत्ता हिरणं जाव (चिच्चा सुवष्णं, चिच्चा धणं--एवं धण्णं बलं वाहणं कोसं कोट्टागारं रज्जं रहें पुरं अन्तेउरं चिच्चा, विउलधण-कणग-रयणमणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवाल-रत्तरयणमाइयं संतसारसावतेज्ज विच्छड्डइत्ता, विगोवइत्ता, दाणं च दाइयाणं परिभायइत्ता, मुंडा भवित्ता अगाराप्रो अपगारियं) पब्वइया, अप्पेगइया अद्धमासपरियाया, अप्पेगइया मासपरियाया-एवं दुमास-तिमास नाव (चउभास-पंचमास-छमास-सत्तमास अट्टमास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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