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________________ कुणिक का दरबार [15 तथा सौम्य था। उसकी सुन्दर वेशभूषा ऐसी थी, मानो शृगार-रस का आवास-स्थान हो। उसकी चाल, हँसी, बोली, कृति एवं दैहिक चेष्टाएँ संगत-समुचित थीं। लालित्यपूर्ण पालाप-संलाप में वह चतुर थी। समुचित लोक-व्यवहार में वह कुशल थी। वह मनोरम, दर्शनीय, अभिरूप तथा प्रतिरूप थी। कूणिक का दरबार 13- तस्स णं कोणियस्स रणो एक्के पुरिसे विउलकयवित्तिए भगवओ पवित्तिवाउए भगवनो तद्देवसियं पवित्ति णिवेदेइ / / १३-राजा कूणिक के यहाँ पर्याप्त वेतन पर भगवान् महावीर के कार्यकलाप को सूचित करने वाला एक वार्ता-निवेदक पुरुष नियुक्त था, जो भगवान् के प्रतिदिन के विहारक्रम आदि प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में राजा को निवेदन करता था। 14-- तस्स :णं पुरिसस्स बहवे अण्णे पुरिसा दिण्णभतिभत्तवेयणा भगवनो पवित्तिवाउया भगवओ तद्देवसियं पवित्ति णिवेदेति / / 14- उसने अन्य अनेक व्यक्तियों को भोजन तथा वेतन पर नियुक्त कर रखा था, जो भगवान् की प्रतिदिन की प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में उसे सूचना करते रहते थे। 15. तेणं कालेणं तेणं समएणं कोणिए राया भभसारपुत्ते बाहिरियाए उबढाणसालाए प्रणेगगणणायग-दंडणायग-राईसर-तलबर-माइंबिय-कोडुबिय-मति-महामति-गणग - दोबारिय-प्रमच्च - चेडपीढमद्द-नगरनिगम-सेट्ठि-सेणावइ-सत्यवाह-दूय-संधिवाल-सद्धि संपरिबुडे विहरइ / १५--एक समय की बात है, भंभसार का पुत्र कणिक अनेक गणनायक-विशिष्ट जनसमूहों के अधिनेता, दण्डनायक-तन्त्रपाल-उच्च प्रारक्षि अधिकारी, राजा-मालिक नरपति, ईश्वर--- ऐश्वर्यशाली एवं प्रभावशाली पुरुष, तलवर-राज्यसम्मानित विशिष्ट नागरिक, मांडविक-जागीरदार, भूस्वामी, कौटुम्बिक-बड़े परिवारों के प्रमुख, मन्त्री, महामन्त्री--मन्त्रिमण्डल के प्रधान, गणक-ज्योतिषी, द्वारपाल, अमात्य--राज्याधिष्ठायक-राज्य-कार्यों में परामर्शक, सेवक, पीठमर्दपरिपाश्विक-राजसभा में अासन्नसेवारत पुरुष, नागरिक, व्यापारी, सेठ', सेनापति- राजा की चतुरंगिणी-रथ, हाथी, घोड़े तथा पैदल सेना के अधिनायक, सार्थवाह-दूसरे देशों में व्यापार करने वाले व्यवसायी, दत.दसरों तथा राजा के ग्रादेश-सन्देश पहुँचाने वाले. सन्धि धपाल-राज्य की सीमाओं के रक्षक-इन विशिष्ट जनों से संपरिवृत-चारों ओर से घिरा हुआ बहिर्वर्ती राजसभा भवन में अवस्थित था। भगवान् महावीर : पदार्पण १६-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे प्राइगरे, तित्थगरे, सहसंबुद्धे, पुरिसुत्तमे, 1. टीकाकार प्राचार्य अभयदेवसरि के अनुसार "श्रेष्ठिन:---श्रीदेवताऽध्यासितसौवर्णपट्टविभुषितोत्तमानाः" अर्थात् लक्ष्मी के चिह्न से अंकित स्वर्णपट्ट से जिनका मस्तक सुशोभित रहता था, वे श्रेष्ठी कहे जाते थे। यह सम्मान संभवतः उन्हें राज्य से प्राप्त होता था। ...-औपपातिक सूत्र वृत्ति, पत्र 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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