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________________ 154] [औपपातिकसूत्र अभिनिवेश द्वारा अपने को, औरों को-दोनों को दुराग्रह में डालते हुए, दृढ़ करते हुए अपने को तथा औरों को आशातना-जनित पाप में निपतित करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन करते हैं। अपने पाप-स्थानों की आलोचना, प्रतिक्रमण नहीं करते हुए मृत्यु-काल पा जाने पर मरण प्राप्तकर वे उत्कष्ट लान्तक नामक छठे देवलोक में किल्बिषिक संज्ञक देवों में (जिनका चाण्डालवत साफ-सफाई करना कार्य होता है) देवरूप में उत्पन्न होते हैं। अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है / उनको वहां स्थिति तेरह सागरोपम-प्रमाण होती है। अनाराधक होते हैं। अवशेष वर्णन पूर्ववत् है। संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यकयोनि जीवों का उपपात ११८-सेज्जे इमे सण्णिपाँचदियतिरिक्खजोणिया पज्जत्तया भवंति, तं जहा-जलयरा, थलयरा, खहयरा। तेसि णं अत्थेगइयाणं सुभेणं परिणामेणं, पसत्थेहि अज्झवसाणेहि, लेस्साहि विसुज्झमाणीहि तयावरणिज्जाणं कम्माणं खग्रोवसमेणं ईहावूहमग्गणगवेसणं करेमाणाणं सण्णीपुब्वजाइसरणे समुपजइ। तए णं समुप्पण्णजाइसरणा समाणा सयमेव पंचागुब्बयाई पडिवज्जंति, पडिवज्जित्ता बहूहि सोलन्वयगुणवेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासेहि अप्पाणं भावेमाणा बहई वासाई पाउयं पालेंति, पालित्ता पालोइयपडिक्कता, समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा उवकोसेणं सहस्सारे कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवति / तहि तेसि गई, अट्ठारस सागरोचमाइं ठिई पण्णत्ता, परलोगस्स पाराहगा, सेसं तं चेव / ११८-जो ये संज्ञी-समनस्क या मन सहित, पर्याप्त-आहारादि-पर्याप्तियुक्त तिर्यग्योनिक–पशु, पक्षी जाति के जीव होते हैं, जैसे-जलचर---पानी में चलने वाले (रहने वाले), स्थलचर---पृथ्वी पर चलने वाले तथा खेचर-- आकाश में चलने वाले (उड़ने वाले), उनमें से कइयों के प्रशस्त-उत्तम अध्यवसाय, शुभ परिणाम तथा विशुद्ध होती हुई लेश्याओं-अन्त: परिणतियों के कारण ज्ञानावरणीय एवं वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा करते हुए अपनी संज्ञित्व-अवस्था से पूर्ववर्ती भवों की स्मृति--जाति-स्मरण ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। जाति-स्मरण ज्ञान उत्पन्न होते ही वे स्वयं पाँच अणुव्रत स्वीकार करते हैं। ऐसा कर अनेकविध शीलवत, गुणवत, विरमण-विरति, प्रत्याख्यान- त्याग, पोषधोपवास आदि द्वारा प्रात्मभावित होते हुए बहुत वर्षों तक अपने आयुष्य का पालन करते हैं-जीवित रहते हैं। फिर वे अपने पाप-स्थानों की पालोचना कर, उनसे प्रतिक्रान्त हो, समाधि-अवस्था प्राप्त कर, मत्यु-काल पाने पर देह-त्याग कर उत्कृष्ट सहस्रार-कल्प-देवलोक में देव रूप में उत्पन्न होते हैं। अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है। उनकी वहाँ स्थिति अठारह सागरोपम-प्रमाण होती है। वे परलोक के आराधक होते हैं / अवशेष वर्णन पूर्ववत् है। प्राजीवकों का उपपात १२०-से जे इमे गामागर जाव' सणिवेसेसु आजीविया भवंति, तं जहा-दुधरंतरिया, तिघरतरिया, सत्तघरतरिया, उप्पलबेटिया, घरसमुदाणिया, विजयंतरिया उट्टिया समणा, ते गं 1. देखें सूत्र-संख्या 71 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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