________________ 152] [औषपातिकसूत्र जल-रज-जल-रूप रज से या जल-कणों से लिप्त नहीं होते, उसी प्रकार कुमार दढप्रतिज्ञ जो काममय जगत् में उत्पन्न होगा, भोगमय जगत् में संवधित होगा-पलेगा-पुसेगा, पर काम-रज सेशब्दात्मक, रूपात्मक भोग्य पदार्थों से-भोगासक्ति से, भोग-रज से--गन्धात्मक, रसात्मक, स्पर्शात्मक भोग्य पदार्थों से-भोगसक्ति से लिप्त नहीं होगा, मित्र--सुहृद्, ज्ञाति-सजातीय, निजक-भाई, बहिन आदि पितृपक्ष के पारिवारिक, स्वजन-नाना, मामा, आदि मातृपक्ष के पारिवारिक, तथा अन्यान्य सम्बन्धी, परिजन–सेवकवृन्द-इन में प्रासक्त नहीं होगा। ११३-से णं तहारूवाणं थेराणं अंतिए केवलं बोहि बुझिहिति, बुज्झित्ता अगाराम्रो अणगारियं पव्वइहिति / ११३---वह तथारूप-वीतराग की आज्ञा के अनुसः अथवा सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र से युक्त स्थविरों-ज्ञानवृद्ध, संयमवृद्ध श्रमणों के पास केवलबोधि-विशुद्ध सम्यक दर्शन प्राप्त करेगा / गृहवास का परित्याग कर वह अनगार-धर्म में प्रवजित-दीक्षित होगा-श्रमणजीवन स्वीकार करेगा। ११४---से णं भविस्सइ अणगारे भगवंते ईरियासमिए जाव (भासासमिए, एसणासमिए, आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए, उच्चारपासवणखेलसिंधाणजल्लपरिट्ठावणियासमिए, मणगुत्ते, वयगुत्ते, कायगुत्ते, गुत्ते, गुत्तिदिए) गुत्तबंभयारी / ११४---वे अनगार भगवान्– मुनि दृढप्रतिज्ञ ईर्या—गमन, हलन, चलन आदि क्रिया, भाषा, पाहार आदि को गवेषणा, याचना, पात्र आदि के उठाने, इधर-उधर रखने आदि तथा मल, मूत्र, खंखार, नाक आदि का मैल त्यागने में समित–सम्यक् प्रवृत्त-यतनाशील होंगे / वे मनोगुप्त, वचोगुप्त, कायगुप्त-मन, वचन तथा शरीर की क्रियाओं का गोपायन-संयम करने वाले, गुप्त शब्द आदि विषयों में रागरहित-अन्तर्मुख, गुप्तेन्द्रिय इन्द्रियों को उनके विषय व्यापार में लगाने को उत्सुकता से रहित तथा गुप्त ब्रह्मचारी नियमोपनियम-पूर्वक ब्रह्मचर्य का संरक्षण-परिपालन करने वाले होंगे। . ११५-तस्स णं भगवंतस्स एएणं विहारेणं विहरमाणस्स अणंते, अणुत्तरे, णिव्याधाए, निरा. वरणे, कसिणे, पडिपुणे केवलवरणाणसणे समुपज्जहिति / ११५.-इस प्रकार की चर्या में संप्रवर्तमान--ऐसा साधनामय जीवन जीते हुए मुनि दृढप्रतिज्ञ को अनन्त--अन्तरहित या अनन्त पदार्थ विषयक- अनन्त पदार्थों को जानने वाला, अनुत्तरसर्वश्रेष्ठ, निधिात-बाधा या व्यवधान रहित, निरावरण--आवरणरहित, कृत्स्न-समग्र-सर्वार्थग्राहक, प्रतिपूर्ण-परिपूर्ण, अपने समग्र अविभागी अंशों से समायुक्त, केवलज्ञान, केवल दर्शन उत्पन्न होगा। ११६--तए णं से दढपहष्णे केवली बहूई वासाइं केवलिपरियागं पाउणिहिति, केवलिपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता, सद्धि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता जस्सट्टाए कोरइ नग्गभावे, मुडभावे, अण्हाणए, अदंतवणए, केसलोए, बंभचेरवासे, अच्छत्तगं अणोवाहणगं, भूमिसेज्जा, फलगसेज्जा, कट्ठसेज्जा, परघरपवेसो लद्धावलद्धं, परेहि होलणामो, खिसणाओ, निंदणाओ, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org