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________________ 146] ओपपातिकसूत्र प्रबहुप्पसण्णे) से विय परियूए, जो चेव णं अपरिपूए, से विय सावज्जे त्ति काउं जो चेव णं प्रणवज्जे, से वि य जीवा ति काउं, गो चेव णं अजीवा, से वि य दिण्णे, णो चेव णं अदिण्णे, से वि य हत्थपायचरुचमसपक्खालणद्वयाए पिबित्तए वा, णो चेव णं सिणाइत्तए। अम्मडस्स कप्पद मागहए य पाढए जलस्स पडिग्गाहित्तए, से वि य वहमाणए जाव' णो चेव णं अदिण्णे, से वि य सिणाइत्तए णो चेव गं हत्थपायचरुचमसपक्खालणट्टयाए पिवित्तए वा। ९८-अम्बड को मागधमान (मगध देश के तोल) के अनुसार आधा आढक जल लेना कल्पता है। वह भी प्रवहमान-~बहता हुमा हो, अप्रवहमान-न बहता हुअा नहीं हो। (वह भी यदि स्वच्छ हो, तभी ग्राह्य है, कीचड़ युक्त हो तो ग्राह्य नहीं है। स्वच्छ होने के साथ-साथ वह बहुत प्रसन्न--- बहुत साफ और निर्मल हो, तभी ग्राह्य है, अन्यथा नहीं / ) वह परिपूत-वस्त्र से छाना हुअा हो तो कल्प्य है, अनछाना नहीं / वह भी सावध-अवध या पाप सहित समझकर, निरवद्य समझकर नहीं। सावध भी वह उसे सजीव-जीव सहित समझकर ही लेता है, अजीव-जीव रहित समझकर नहीं / वसा जल भी दिया हुअा हो कल्पता है, न दिया हुप्रा नहीं / वह भी हाथ, पैर, चरु–भोजन का पात्र, चमस-काठ की कुड़छी-चम्मच धोने के लिए या पीने के लिए ही कल्पता है, नहाने के लिए नहीं। अम्बड को मागधमान के अनुसार एक आढक पानी लेना कल्पता है। वह भी बहता हुआ, यावत् दिया हुआ ही कल्पता है, बिना दिया नहीं / वह भी स्नान के लिए कल्पता है, हाथ, पैर, चरु, चमस, धोने के लिए या पीने के लिए नहीं। ९९–अम्मडस्स णो कप्पाइ अण्णउत्थिया वा, अण्णउत्थियदेवयाणि वा, अण्णउत्थियपरिग्गहियाणि वा चेइयाई वंदित्तए वा, मंसित्तए वा, जाव (सक्कारितए वा, सम्माणित्तए वा,) पज्जुवासित्तए वा, अण्णत्थ अरिहंते वा अरिहंतचेइयाइं वा। ९९--अर्हत् या अर्हत्-चैत्यों के अतिरिक्त अम्बड को अन्य यूथिक---निर्यन्थ-धर्मसंघ के अतिरिक्त अन्य संघों से सम्बद्ध पुरुष, उनके देव, उन द्वारा परिगृहीत-स्वीकृत चैत्य'-उन्हें वन्दन करना, नमस्कार करना, (उनका सत्कार करना, सम्मान करना यपासना करना नहीं कल्पता। अम्बड के उत्तरवर्ती भव १००-अम्मडे णं भंते ! परिब्वायए कालमासे कालं किच्चा कहि गच्छिहिति ? कहि उववजिहिति? गोयमा! अम्मडे गं परिव्वायए उच्चावरहि सोलम्वयगुणवेरमणपच्चक्खाणपोसहोश्वासे हि अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाई समणोवासयपरियायं पाणिहिति, पाणिहित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं भूसित्ता, सद्धि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता, पालोइयपडिक्कते, समाहिपत्ते कालमासे काल 1. देखें सूत्र-संख्या 80 / / 2. सूत्र-संख्या 2 के विवेचन में चैत्य की विस्तृत व्याख्या है, जो द्रष्टव्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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