________________ परिवाजकों का उपपात] [131 77 ते णं परिवाया रिउग्वेद-यजम्वेद-सामवेद-अहव्वणवेद-इतिहासपंचमाणं, निघण्टुछट्ठाणं, संगोवंगाणं सरहस्साणं चउण्हं वेदाणं सारगा पारगा धारणा, सडंगवी, सद्वितंत्तविसारया, संखाणे, सिक्काकप्पे, बागरणे, छंदे, निरुत्ते, जोइसामयणे, अण्णेसु य बहूसु बंभण्णएसु य सत्थेसु परिवाएसु य नएसु सुपरिणिट्ठिया यावि होत्था / ७७-वे परिव्राजक ऋक्, यजु, साम, अथर्वण --इन चारों वेदों, पाँचवें इतिहास, छठे निघण्टु के अध्येता थे। उन्हें वेदों का सांगोपांग रहस्य बोधपूर्वक ज्ञान था। वे चारों वेदों के सारकअध्यापन द्वारा सम्प्रवर्तक अथवा स्मारक-औरों को स्मरण कराने वाले, पारग-वेदों के पारगामी, धारक-उन्हें स्मृति में बनाये रखने में सक्षम तथा वेदों के छहों अंगों के ज्ञाता थे / वे षष्टितन्त्र--- में विशारद या निपुण थे। संख्यान-गणित विद्या, शिक्षा-ध्वनि विज्ञान-वेद मन्त्रों के उच्चारण के विशिष्ट विज्ञान, कल्प-याज्ञिक कर्मकाण्डविधि, व्याकरण-शब्दशास्त्र, छन्द–पिंगलशास्त्र, निरुक्त-वैदिक शब्दों के निर्वचनात्मक या व्युत्पत्तिमूलक व्याख्या-ग्रन्थ, ज्योतिष शास्त्र तथा अन्य ब्राह्मण्य --ब्राह्मणों के लिए हितावह शास्त्र अथवा ब्राह्मण-ग्रन्थ-वैदिक कर्मकाण्ड के प्रमुख विषय में विद्वानों के विचारों के संकलनात्मक ग्रन्थ - इन सब में सुपरिनिष्ठित-सुपरिपक्व ज्ञानयुक्त होते हैं / ७८-ते गं परिवाया दाणधम्मं च सोयधम्मं च तिस्थाभिसेयं च प्राघवेमाणा, पण्णवेमाणा, परूवेमाणा विहरति / जं णं अम्हं किं चि असुई भवइ, तं गं उदएण य मट्टियाए य पक्खालियं सुई भवति / एवं खलु अम्हे चोक्खा, चोक्खायारा, सुई, सुइसमायारा भवित्ता अभिसेयजलपूयप्पाणो प्रविग्घेणं सग्गं गमिस्सामो। ७८-वे परिव्राजक दान-धर्म, शौच-धर्म, दैहिक शुद्धि एवं स्वच्छतामूलक प्राचार तीर्थाभिषेक-तीर्थस्थान का जनसमुदाय में श्राख्यान करते हुए-कथन करते हुए, प्रज्ञापन करते हुए -विशेष रूप से समझाते हुए, प्ररूपण करते हुए युक्तिपूर्वक स्थापित या सिद्ध करते हुए विचरण करते हैं। उनका कथन है, हमारे मतानुसार जो कुछ भी अशुचि-अपवित्र प्रतीत हो जाता है, वह मिट्टी लगाकर जल से प्रक्षालित कर लेने पर- धो लेने पर पवित्र हो जाता है। इस प्रकार हम स्वच्छ--निर्मल देह एवं वेष युक्त तथा स्वच्छाचार-निर्मल आचार युक्त हैं, शुचि-पवित्र, शुच्याचार–पवित्राचार युक्त हैं, अभिषेक स्नान द्वारा जल से अपने आपको पवित्र कर निविघ्नतया स्वर्ग जायेंगे। 79 तेसि णं परिक्वायगाणं णो कप्पइ अगडं व तलायं वा नई वा वावि वा पुरिणि वा दोहियं वा गुंजालियं वा सरं वा सागरं वा प्रोगाहित्तए, णण्णस्थ अद्धाणगमणेणं / णो कप्पइ सगडं वा जाव (रहं वा जाणं वा जुग्गं वा गिल्लि वा लि वा पवहणं वा सीयं वा) संदमाणियं वा दुरूहित्ता णं गच्छित्तए / तेसि गं परिवायगाणं णो कप्पइ प्रासं वा हत्थि वा उ वा गोणं वा महिसं या खरं वा दुरूहित्ता णं गमित्तए, णण्णत्थ बलाभियोगेणं / तेसि गं परिवायगाणं णो कप्पइ नडपेच्छा इ वा जाव (नट्टगप्पेच्छा इ वा, जल्लपेच्छा इ वा, मल्लपेच्छा इ वा, मुट्टियपेच्छा इ वा, वेलंबयपेच्छा इ बा पवगयेच्छा इ वा, कहगपेच्छा इ वा, लासगपेच्छा इ वा, ग्राइक्खगपेच्छा इ वा, लंखपेच्छा इवा, मंखपेच्छा इवा, तणइल्लपेच्छा इवा, तुबवीणियपेच्छा इवा, भुयगच्छा इवा) मागहषच्छा इवा पेच्छित्तए / तेसिं परिवायगाणं णो कप्पइ हरियाणं लेसणया वा, घट्टणया वा, थंभणया वा लूसणया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org