________________ परिवाजकों का उपपात] [129 कालं किच्चा उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पे कंदप्पिएसु देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति / तहि तेसि गई, सेसं तं व गवरं पलिओबमं वाससयसहस्समब्भहियं ठिई। 75 –(ये) जो ग्राम, सन्निवेश आदि में मनुष्य रूप में उत्पन्न होते हैं, प्रवजित होकर अनेक रूप में श्रमण होते हैं--- जैसे कान्दपिक-नानाविध हास-परिहास या हँसी-मजाक करने वाले, कौकुचिक-भौं, अाँख, मुह, हाथ पैर आदि से भांडों की तरह कुत्सित चेष्टाएं कर हंसाने वाले, मौखरिक असम्बद्ध या ऊटपटांग बोलने वाले, गोतरतिप्रिय-..-गानयक्त क्रीडा में विशेष अभिरुचिशील अथवा गीतप्रिय लोगों को चाहने वाले तथा नर्तनशील --नाचने की प्रकृति वाले, जो अपने-अपने जीवन-क्रम के अनुसार आचरण करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण-जीवन का पालन करते हैं, पालन कर अन्त समय में अपने पाप-स्थानों का आलोचन-प्रतिक्रमण नहीं करते-गुरु के समक्ष आलोचना कर दोष-निवृत्त नहीं होते, वे मृत्युकाल आने पर देह-त्याग कर उत्कृष्ट सौधर्म-कल्प में प्रथम देवलोक में हास्य-क्रीडा-प्रधान देवों में उत्पन्न होते हैं। वहाँ उनकी गति आदि अपने पद के अनुरूप होती है। उनकी स्थिति एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम को होती है / परिव्राजकों का उपपात ७६-से जे इमे जाव' सन्निवेसेसु परिवाया भवंति, तं जहा-संखा, जोगी, काविला, भिउन्धा, हंला, परमहंसा, बहुउदगा, कुलिब्धया, कण्हपरिव्वाया। तत्थ खलु इमे अट्ठ माहणपरिवायगा भवंति / तं जहा-- कण्हे य करकंडे य अंबडे य परासरे / कण्हे दीवायणे चेव देवगुत्ते य नारए / तत्थ खलु इमे अट्ठ खत्तियपरिव्वाया भवंति, तं जहा-- सीलई ससिहारे (य), नगई भग्गई ति य / विदेहे रायाराया, राया रामे बलेति य॥ 76 --जो ग्राम................."सन्निवेश आदि में अनेक प्रकार के परिव्राजक होते हैं, जैसेसांख्य-पुरुष, प्रकृति, बुद्धि, अहंकार, पञ्चतन्मात्राएं, एकादश इन्द्रिय, पंचमहाभुत-इन पच्चीसरे तत्वों में श्रद्धाशील, योगी--हठ योग के अनुष्ठाता, कापिल--महर्षि कपिल को अपनी परम्परा का प्राद्य प्रवर्तक मानने वाले, निरीश्वरवादी सांख्य मतानुयायी, भार्गव-भृगु ऋषि की परम्परा के अनुसर्ता, हंस, परमहंस, बहूदक तथा कुटीचर संज्ञक चार प्रकार के यति एवं कृष्ण परिव्राजकनारायण में भक्तिशील विशिष्ट परिव्राजक आदि / 1. देखें सूत्र-संख्या 71 2. पञ्चविशतितत्त्वज्ञो, यत्र तत्राथमे बसन् / जटी मण्डी शिखी वापि, मुच्यते नात्र संशयः // - सांख्यकारिका 1. गौडपादभाष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org