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________________ दर्शन-वन्दन को तैयारो] प्रकार से व्यायाम किया / अंगों को खींचना, उछलना-कूदना, अंगों को मोड़ना, कुश्ती लड़ना, व्यायाम के उपकरण-मुद्गर आदि घुमाना-इत्यादि क्रियाओं द्वारा अपने को श्रान्त, परिश्रान्त कियाथकाया, विशेष रूप से थकाया। फिर प्रीणनीय रस, रक्त आदि धातुओं में समता-निष्पादक, दर्पणीय-बलवर्धक, मदनीय-कामोद्दीपक, बृहणोय - मांसवर्धक, शरीर तथा सभी इन्द्रियों के लिए आह्लादजनक-प्रानन्दकर या लाभप्रद शतपाक, सहस्रपाक संज्ञक सुगंधित तेलों, अभ्यंगों-उबटनों आदि द्वारा शरीर को मसलवाया। फिर तलचर्म पर-पासन-विशेष पर-वैसे आसन पर, तेल मालिश किये हुए पुरुष को जिस पर बिठाकर संवाहन किया जाता है, देहचंपी की जाती है, स्थित होकर ऐसे पुरुषों द्वारा, जिनके हाथों और पैरों के तलुए अत्यन्त सुकुमार तथा कोमल थे, जो छेक-अवसरज्ञ, कलाविद्- बहत्तर कलानों के ज्ञाता, दक्ष- अविलम्ब कार्य संपादन में सक्षम, प्राप्तार्थ-अपने व्यवसाय में सुशिक्षित, कुशल, मेघावी-उर्वर प्रतिभाशील, संवाहन-कला में निपुण-तत्सम्बद्ध क्रिया-प्रक्रिया के मर्मज्ञ, अभ्यंगन-तैल, उबटन आदि के मर्दन, परिमर्दन--तैल आदि को अंगों के भीतर तक पहुँचाने हेतु किये जाने वाले विशेष मर्दन, उद्वलन-उलटे रूप में--नीचे से ऊपर या उलटे रोगों से किये जाते मर्दन से जो गुण, लाभ होते हैं, उनका निष्पादन करने में समर्थ थे, हडियों के लिए सुख प्रद, मांस के लिए सुखप्रद, चमड़ी के लिए सुखप्रद तथा रोमों के लिए सुखप्रद–यों चार प्रकार से मालिश व देहचंपी करवाई, शरीर को दबवाया / इस प्रकार थकावट, व्यायामजनित परिश्रान्ति दूर कर राजा व्यायामशाला से बाहर निकला। बाहर निकल कर, जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया। आकर स्नानघर में प्रविष्ट हुमा / वह (स्नानघर) मोतियों से बनी जालियों द्वारा सुन्दर लगता था अथवा सब ओर जालियाँ होने से वह वड़ा मनोरम था। उसका प्रांगण तरह-तरह की मणियों, रत्नों से खचित था। उसमें रमणीय स्नानमंडप था। उसको भीतों पर अनेक प्रकार की मणियों तथा रत्नों को चित्रात्मक रूप में जड़ा गया था। ऐसे स्नानघर में प्रविष्ट होकर राजा वहाँ स्नान हेतु अवस्थापित चौकी पर सुखपूर्वक बैठा / शुद्ध, चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थों के रस से मिश्रित, पुष्परस-मिश्रित शुभ या सुखप्रद—न ज्यादा उष्ण, न ज्यादा शीतल जल से अानन्दप्रद, अतीव उत्तम स्नान-विधि द्वारा पुन: पुन:-अच्छी तरह स्नान किया। स्नान के अनन्तर राजा ने दृष्टिदोप, नजर आदि के निवारणहेतु रक्षाबन्धन प्रादि के रूप में अनेक, सैकड़ों विधि-विधान संपादित किये। तत्पश्चात रोएँदार, सुकोमल, काषायितहरीतकी, विभीतक, आमलक आदि कसैली वनौषधियों से रंगे हए अथवा काषाय-लाल या गेरुएं रंग के वस्त्र से शरीर को पोंछा / सरस-रसमय-प्रार्द्र, सुगन्धित गोलोचन तथा चन्दन का देह पर लेप किया। अहत-अदूषित, चूहों आदि द्वारा नहीं कुतरे हुए, निर्मल, दूष्य रत्न- उत्तम या प्रधान वस्त्र भलीभांति पहने / पवित्र माला धारण की। केसर आदि का विलेपन किया / मणियों से जड़े सोने के आभूषण पहने / हार-अठारह लड़ों के हार, अर्ध हार-नौ लड़ों के हार, तथा तीन लड़ों के हार और लम्बे, लटकते कटिसूत्र-करधनी या कंदोरे से अपने को सुशोभित किया / गले के प्राभरण धारण किये। अंगुलियों में अंगूठियाँ पहनीं। इस प्रकार अपने सुन्दर अंगों को सुन्दर प्राभूषणों से विभूषित किया / उत्तम कंकणों तथा त्रुटितों-तोड़ों-- भुजबंधों द्वारा भुजाओं को स्तम्भित कियाकसा / यों राजा की शोभा और अधिक बढ़ गई / मुद्रिकाओं-सोने की अंगूठियों के कारण राजा की अंगुलियाँ पोली लग रही थीं। कुडलों से मुख उद्योतित था -चमक रहा था / मुकुट से मस्तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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