________________ ज्यान] [71 धर्म-ध्यान के चार लक्षण बतलाये गये हैं / वे इस प्रकार हैं-- 1. प्राज्ञा-रुचि--वीतराग प्रभु की आज्ञा में, प्ररूपणा में अभिरुचि होना, श्रद्धा होना / 2. निसर्ग-रुचि-नैसर्गिक रूप में स्वभावत: धर्म में रुचि होना। 3. उपदेश-रुचि-साधु या ज्ञानो के उपदेश से धर्म में रुचि होना अथवा धर्म का उपदेश सुनने में रुचि होना / 4. सूत्र-रुचि--सूत्रों-आगमों में रुचि या श्रद्धा होना। धर्मध्यान के चार आलम्बन-- ध्यान रूपी प्रासाद के शिखर पर चढ़ने के लिए सहायकपाश्रय कहे गये हैं / वे इस प्रकार हैं 1. वाचना- सत्य सिद्धान्तों का निरूपण करने वाले पागम, शास्त्र, ग्रन्थ आदि पढ़ना / 2. पृच्छना-- अधोत, ज्ञात विषय में स्पष्टता हेतु जिज्ञासु भाव से अपने मन में ऊहापोह करना, ज्ञानी जनों से पूछना, समाधान पाने का यत्न करना / 3. परिवर्तना-जाने हुए, सीखे हुए ज्ञान की पुनः प्रावृत्ति करना, ज्ञात विषय में मानसिक, वाचिक वृत्ति लगाना / 4. धर्मकथा-धर्मकथा करना, धार्मिक उपदेशप्रद कथाओं, जीवन-वृत्तों, प्रसंगों द्वारा श्रात्मानुशासन में गतिशील होना / धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ-भावनाएं या विचारोत्कर्ष की अभ्यास-प्रणालिकाएँ बतलाई गई हैं। वे इस प्रकार हैं-- 1. अनित्यानुप्रेक्षा--सुख, सम्पत्ति, वैभव, भोग, देह, यौवन, आरोग्य, जोवन, परिवार आदि सभी ऐहिक वस्तुएँ अनित्य हैं-प्रशाश्वत हैं, यो चिन्तन करना, ऐसे विचारों का अभ्यास करना / 2. अशरणानुप्रेक्षा--जन्म, जरा, रोग, कष्ट, वेदना, मृत्यु प्रादि की दुर्धर विभीषिका में जिनेश्वर देव के वचन के अतिरिक्त जगत् में और कोई शरण नहीं है, यों बार-बार चिन्तन करना। 3. एकत्वानुप्रेक्षा--मृत्यु, वेदना, पीड़ा, शोक, शुभ-अशुभ कर्म-फल इत्यादि सब जीव अकेला ही पाता है, भोगता है, सुख, दुःख, उत्थान, पतन आदि का सारा दायित्व एकमात्र अपना अकेले का है। अतः क्यों न प्राणी प्रात्मकल्याण साधने में जुटे, इस प्रकार की वैचारिक प्रवृत्ति जगाना, उसे बल देना, गतिशील करना। 4. संसारानुप्रेक्षा.--संसार में यह जीव कभी पिता, कभी पुत्र, कभी माता, कभी पुत्री, कभी भाई, कभी बहिन, कभी पति, कभी पत्नी होता है-इत्यादि कितने-कितने रूपों में संसरण करता है, यों वैविध्यपूर्ण सांसारिक सम्बन्धों का, सांसारिक स्वरूप का पुन:-पुनः चिन्तन करना, आत्मोन्मुखता पाने हेतु विचाराभ्यास करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org