________________ आदि वचन [प्रथम संस्करण से] विश्व के जिन दार्शनिको----द्रष्टाओं/चिन्तकों, ने "प्रात्मसत्ता" पर चिन्तन किया है, या यात्म-साक्षात्कार किया है उन्होंने पर-हितार्थ प्रात्म-विकास के साधनों तथा पद्धतियों पर भी पर्याप्त चिन्तन-मनन किया है। प्रात्मा तथा तत्सम्बन्धित उनका चिन्तन-प्रवचन अाज अागम/पिटक वेद/उपनिषद् आदि विभिन्न नामों से विश्रुत है। जनदर्शन की यह धारणा है कि प्रात्मा के विकारों-राग-द्वेष आदि को साधना के द्वारा दूर किया जा सकता है, और विकार जब पूर्णतः निरस्त हो जाते हैं तो प्रात्मा की शक्तियां ज्ञान सुख वीर्य प्रादि सम्पूर्ण रूप में उद्घाटित-उद्भासित हो जाती हैं। शक्तियों का सम्पूर्ण प्रकाश-विकास ही सर्वज्ञता है और सर्वज्ञ प्राप्त-पुरुष की दाणी, वचन कथन/प्ररूपणा--"प्रागम" के नाम से अभिहित होती है। प्रागम अर्थात् तत्त्वज्ञान, आत्म-ज्ञान तथा प्राचार-व्यवहार का सम्यक् परिबोध देने वाला शास्त्र/सुत्र/प्राप्तवचन / - सामान्यतः सर्वज्ञ के वचनों/वाणी का संकलन नहीं किया जाता, वह बिखरे सुमनों की तरह होती है, किन्तु विशिष्ट अतिशयसम्पन्न सर्वज्ञ पुरुष, जो धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं, संघीय जीवन पद्धति में धर्म-साधना को स्थापित करते हैं, वे धर्मप्रवर्तक/अरिहंत या तीर्थकर कहलाते हैं। तीर्थंकर देव की जनकल्याणकारिणी वाणी को उन्हीं के अतिशयसम्पन्न विद्वान् शिष्य गणधर संकलित कर "आगम" या शास्त्र का रूप देते हैं अर्थात् जिन-वचनरूप सुमनों की मुक्त वृष्टि जब मालारूप में ग्रथित होती है तो वह "पागम" का रूप धारण करती है। वही आगम अर्थात् जिन-प्रवचन आज हम सब के लिए आत्म-विद्या या मोक्ष-विद्या का मूल स्रोत है। "आगम" को प्राचीनतम भाषा में "गणिपिटक" कहा जाता था। अरिहंतों के प्रवचनरूप समग्र शास्त्रद्वादशांग में समाहित होते हैं और द्वादशांग/प्राचारांग-सूत्रकृतांग आदि के अंग-उपांग आदि अनेक भेदोपभेद विकसित हुए हैं। इस द्वादशांगी का अध्ययन प्रत्येक मुमुक्षु के लिए प्रावश्यक और उपादेय माना गया है। द्वादशांगी में भी बारहवां अंग विशाल एवं समग्र श्रुतज्ञान का भण्डार माना गया है, उसका अध्ययन बहुत ही विशिष्ट प्रतिभा एवं श्रुतसम्पन्न साधक कर पाते थे। इसलिए सामान्यत: एकादशांग का अध्ययन साधकों के लिए विहित हुआ तथा इसी अोर सबको गति/मति रही। की परम्परा नहीं थी, लिखने के साधनों का विकास भी अल्पतम था, तव प्राममों/शास्त्री को स्मृति के आधार पर या गुरु-परम्परा से कंठस्थ करके सुरक्षित रखा जाता था। सम्भवतः इसलिए पागम ज्ञान को श्रुतज्ञान कहा गया और इसीलिए श्रुतिस्मृति जैसे सार्थक शब्दों का व्यवहार किया गया। भगवान महावीर के परिनिर्वाण के एक हजार वर्ष बाद तक आगमों का ज्ञान स्मृति/श्रुति परम्परा पर ही आधारित रहा / पश्चात् स्मृतिदौर्बल्य, गुरुपरम्परा का विच्छेद, दुष्काल-प्रभाव आदि अनेक कारणों से धीरे-धीरे आगमज्ञान लुप्त होता चला गया / महासरोवर का जल सूखता-सूखता गोष्पद मात्र रह गया / मुमुक्षु श्रमणों के लिए यह जहाँ चिन्ता का विषय था, वहाँ चिन्तन की तत्परता एवं जागरूकता को चुनौती भी थी। वे तत्पर हुए श्रुतज्ञान-निधि के संरक्षण हेतु / तभी महान् श्रुतपारगामी देवद्धिगणि क्षमाश्रमण ने विद्वान् श्रमणों का एक सम्मेलन बुलाया और स्मृति-दोष से लुप्त होते ज्ञान को सरक्षित एवं संजोकर रखने का आहवान किया। सर्वसम्मति से प्रागमों को लिपिबद्ध किया गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org