________________ 58 ] [ प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. 1, अ. 2 के एक समान वातावरण में पलने वाले दो पुत्रों में धरती-आकाश जैसी जो विषमता दृष्टिगोचर होती है, वह किसी अदृष्ट कारण से ही होती है / वह अदृष्ट कारण पूर्वजन्मकृत शुभाशुभ कर्म ही हो सकता है और पूर्वजन्मकृत शुभाशुभ कर्म का फल प्रात्मा का पूर्व जन्म में अस्तित्व माने विना नहीं सिद्ध हो सकता। बालक को जन्मते ही स्तनपान करने की अभिलाषा होती है और स्तन का अग्रभाग मुख में जाते ही वह दूध को चूसने लगता है। उसे स्तन को चसना किसने सिखलाया है ? माता बालक के मुख में स्तन लगा देती है, परन्तु उसे चूसने की क्रिया तो बालक स्वयं ही करता है / यह किस प्रकार होता है ? स्पष्ट है कि पूर्व जन्मों के संस्कारों की प्रेरणा से ही ऐसा होता है। क्या इससे प्रात्मा के अस्तित्व की सिद्धि नहीं होती? 'एगे आया' इत्यादि प्रागम वाक्यों से भी आत्मा की कालिक सत्ता प्रमाणित है / विस्तार से आत्मसिद्धि के जिज्ञासु जनों को दर्शनशास्त्र के ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिए। आत्मा की सिद्धि हो जाने पर परलोक-पुनर्जन्म, पाप-पुण्य, पाप-पुण्य का फल, विविध योनियों में जन्म लेना आदि भी सिद्ध हो जाता है। पूर्वजन्म की स्मृति की घटनाएँ आज भी अनेकानेक घटित होती रहती हैं / ये घटनाएँ प्रात्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को अभ्रान्त रूप से सिद्ध करती हैं / __ पंचस्कन्धवाद-बौद्धमत में पांच स्कन्ध माने गए हैं-(१) रूप (2) वेदना (3) विज्ञान (4) संज्ञा और (5) संस्कार / / १---रूप-पृथ्वी, जल आदि तथा इनके रूप, रस आदि / २-बेदना-सुख, दुःख आदि का अनुभव / ३--विज्ञान-विशिष्ट ज्ञान अर्थात् रूप, रस, घट, पट आदि का ज्ञान / ४--संज्ञा-प्रतीत होने वाले पदार्थों का अभिधान-नाम / ५-संस्कार-पुण्य-पाप आदि धर्मसमुदाय / बौद्धदर्शन के अनुसार समस्त जगत् इन पांच स्कन्धों का ही प्रपंच है। इनके अतिरिक्त प्रात्मा का पृथक् रूप से कोई अस्तित्व नहीं है / यह पाँचों स्कन्ध क्षणिक हैं।। ___ बौद्धों में चार परम्पराएँ हैं--(१) वैभाषिक (2) सौत्रान्तिक (3) योगाचार और (4) माध्यमिक / वैभाषिक सभी पदार्थों का अस्तित्व स्वीकार करते हैं, किन्तु सभी को क्षणिक मानते हैं। क्षण-क्षण में प्रात्मा का विनाश होता रहता है, परन्तु उसकी सन्तति–सन्तानपरम्परा निरन्तर चालू रहती है। उस सन्तानपरम्परा का सर्वथा उच्छेद हो जाना-बंद हो जाना ही मोक्ष है / सौत्रान्तिक सम्प्रदाय के अनुसार जगत् के पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं होता / उन्हें अनुमान द्वारा ही जाना जाता है / योगाचार पदार्थों को असत् मानकर सिर्फ ज्ञान की ही सत्ता स्वीकार करते हैं और वह ज्ञान क्षणिक है। माध्यमिक सम्प्रदाय इन सभी से आगे बढ़ कर ज्ञान की भी सत्ता नहीं मानता / वह शून्यवादी है। न ज्ञान है और न ज्ञेय है / शून्यवाद के अनुसार वस्तु सत् नहीं, असत् भी नहीं, सत्-असत् भी नहीं और सत्-असत् नहीं ऐसा भी नहीं / तत्त्व इन चारों कोटियों से विनिर्मुक्त है। इन सब भ्रान्त मान्यताओं का प्रतीकार विस्तारभय से यहाँ नहीं किया जा रहा है / दर्शनशास्त्र में विस्तार से इनका खण्डन किया गया है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org