________________ द्वितीय अध्ययन : मृषावाद मृषावाद का स्वरूप ४४-जंबू' ! बिइयं लियवयणं लहुसग-लहचवल-भणियं भयंकर दुहकर प्रयसकर वेरकरगं परह-रह-रागवोस-मणसंकिलेस-वियरणं अलियणियडिसाइजोयबहुलं णोयजणणिसेवियं णिस्संस अप्पच्चयकारगं परमसाहुगरहणिज्ज परपीलाकारगं परमकिण्हलेस्ससेवियं दुग्गइविणिवायविवडणं भवपुणमवकरं चिरपरिचिय-मणगयं दुरंत कित्तियं बिइयं महम्मदारं / ४४--जम्बू ! दूसरा (प्रास्रवद्वार) अलीकवचन अर्थात् मिथ्याभाषण है। यह गुण-गौरव से रहित, हल्के, उतावले और चंचल लोगों द्वारा बोला जाता है, (स्व एवं पर के लिए) भय उत्पन्न करने वाला, दुःखोत्पादक, अपयशकारी एवं वैर उत्पन्न करने वाला है। यह अरति, रति, राग, द्वेष और मानसिक संक्लेश को देने वाला है / शुभ फल से रहित है / धूर्तता एवं अविश्वसनीय वचनों की प्रचुरता वाला है / नीच जन इसका सेवन करते हैं / यह नृशंस, क्रूर अथवा निन्दित है / अप्रतीतिकारक है-विश्वसनीयता का विघातक है। उत्तम साधुजनों-सत्पुरुषों द्वारा निन्दित है। दूसरों कोजिनसे असत्यभाषण किया जाता है, उनको पीड़ा उत्पन्न करने वाला है। उत्कृष्ट कृष्णलेश्या से सहित है अर्थात् कृष्णलेश्या वाले लोग इसका प्रयोग करते हैं। यह दुर्गतियों में निपात को बढ़ाने वाला-वारंवार दुर्गतियों में ले जाने वाला है / भव-पुनर्भव करने वाला अर्थात् जन्म-मरण की वृद्धि करने वाला है / यह चिरपरिचित है-अनादि काल से जीव इसके अभ्यासी हैं। निरन्तर साथ रहने वाला है और बड़ी कठिनाई से इसका अन्त होता है अथवा इसका परिणाम अतीव अनिष्ट होता है। विवेचन-प्राणवध नामक प्रथम आस्रवद्वार के विवेचन के पश्चात् दूसरे प्रास्रवद्वार का विवेचन यहाँ से प्रारम्भ किया गया है। श्रीसुधर्मा स्वामी ने जम्बू स्वामी को लक्ष्य करके यह प्ररूपणा की है। अलोक वचनों का स्वरूप समझाने के लिए उसे अनेकानेक विशेषणों से युक्त प्रकट किया गया है। असत्य वचनों का प्रयोग ऐसे मनुष्य ही करते हैं जिनमें गुणों की गरिमा नहीं होती, जो क्षुद्र, हीन, तुच्छ या टुच्चे होते हैं / जो अपने वचनों का स्वयं ही मूल्य नहीं जानते, जो उतावल में सोचेसमझे विनाही.बोलते हैं और जिनकी प्रकृति में चंचलता होती है। इस प्रकार विचार किए विना चंचलतापूर्वक जो वचन बोले जाते हैं, वे स्व-पर के लिए भयंकर सिद्ध होते हैं / उनके फलस्वरूप अनेक प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं / अतएव साधुजन-सत्पुरुष असत्य का कदापि सेवन नहीं करते / वे सुविचारित सत्य तथ्य का ही प्रयोग करते हैं और वह भी ऐसा कि जिससे किसी को पीड़ा न हो, क्योंकि पीडाजनक वचन तथ्य होकर भी सत्य नहीं कहलाता। 1. "इह खलु जंबू"-पाठ भी कुछ प्रतियों में है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org