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________________ 4 ] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु.१, अ.१ शस्त्र से वध किए जाने योग्य, अज्ञान-मूढ, अशुभ लक्षणों से भरपूर शरीर वाले, दुर्बल, अप्रशस्त संहनन वाले, बेडौल अंगोपांगों वाले, खराब संस्थान-आकृति वाले, कुरूप, दीन, हीन, सत्त्वविहीन, सुख से सदा वंचित रहने वाले और अशुभ दुःखों के भाजन होते हैं। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में ऐसे प्राणियों की दुर्दशा का चित्रण किया गया है जो हिंसा के फलस्वरूप नरक में उत्पन्न हुए थे और फिर नरक से किसी तरह कठिनाई से निकल कर सीधे मनुष्यभव को प्राप्त हुए हैं अथवा पहले तिथंच गति की यातनाएँ भुगत कर फिर मानवभव को प्राप्त हुए हैं, किन्तु जिनके घोरतर पापकर्मों का अन्त नहीं हो पाया है। जिनको पापों का फल भोगना बाकी रह गया है / उस बाकी रहे पापकर्म का फल उन्हें मनुष्य योनि में भोगना पड़ता है। उसी फल का यहाँ दिग्दर्शन कराया गया है। ऐसे पापी प्राणी अधन्य होते हैं। उन्हें सर्वत्र निन्दा, अपमान, तिरस्कार और धिक्कार ही मिलता है। वे कहीं और कभी आदर-सम्मान नहीं पाते। इसके अतिरिक्त उनका शरीर विकृत होता है, बेडौल होता है, अंधे, काने, बहिरे, गूगे, चपड़ी प्रांखों वाले, अस्पष्ट उच्चारण करने वाले होते हैं। उनका संहनन-अस्थिनिचय-कत्सित होता है। संस्थान अर्थात शरीर की प्राकृति भी निन्दित होती है। कुष्ठादि भीषण व्याधियों से और ज्वरादि रोगों से तथा मानसिक रोगों से पीडित रहते हैं। उनका जीवन ऐसा होता है मानो वे भूत-पिशाच से ग्रस्त हों। वे ज्ञानहीन, मूर्ख होते हैं। सत्त्वविहीन होते हैं और किसी न किसी शस्त्र से वध होने पर वे मरण-शरण होते हैं। जीवन में उन्हें कभी और कहीं भी आदर-सन्मान नहीं मिलता, तिरस्कार, फटकार, धुत्कार और धिक्कार ही मिलता है / वे सुखों के नहीं, दुःखों के ही पात्र बनते हैं। क्या नरक से निकले हुए सभी जीव मनुष्य-पर्याय पाकर पूर्वोक्त दुर्दशा के पात्र बनते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर मूल पाठ से ही मिल जाता है। मूल पाठ में 'पायसो' और 'सावसेसकम्मा' ये दो पद ध्यान देने योग्य हैं / इनका तात्पर्य यह है कि सभी जीवों की ऐसी दुर्दशा नहीं होती, वरन् प्रायः अर्थात् अधिकांश जीव मनुष्यगति पाकर पूर्वोक्त दुःखों के भागी होते हैं। अधिकांश जीव वे हैं जिनके पाप-कर्मों का फल-भोग पूरा नहीं हुआ है, अपितु कुछ शेष है। जिन प्राणियों का फल-भोग परिपूर्ण हो जाता है, वे कुछ जीव नरक से सीधे निकल कर लोकपूज्य, आदरणीय, सन्माननीय एवं यशस्वी भी होते हैं, यहाँ तक कि कोई-कोई अत्यन्त विशुद्धिप्राप्त जीव तीर्थकर पद भी प्राप्त करता है / उपसंहार-- ४३-एवं गरगं तिरिक्ख-जोणि कुमाणुसत्तं च हिंडमाणा पावंति प्रणंताई दुक्खाई पावकारी। एसो सो पाणवहस्स फलविवागो। इहलोइनो परलोइनो अप्पसुहो बहुदुक्खो महाभयो बहुरयप्पगाढो दारुणो कक्कसो असानो वाससहस्सेहि मुचई ण य अवेदयित्ता त्यि हु मोक्खो ति एवमाहंसु णायकूलणंदणो महत्पा जिणो उ वीरबरणामधेज्जो कहेसी य पाणवहस्स फलविवागं। एसो सो पाणवहो चंडो रुद्दो खुद्दो प्रणारिनो णिग्घिणो णिसंसो महब्भनो बोहणम्रो तासणनो अणज्जाप्रो उध्वेयणप्रो य गिरक्यक्खो गिद्धम्मो णिप्पिवासो णिवकलुणो णिरयवासगमणणिधणो मोहमहन्मयपवड्डयो मरणवेमणसो। पढ़मं अहम्मवारं सम्मत्तं ति बेमि // 1 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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