SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 38 [प्रश्नव्याकरणसूत्रं : शु. 1, . की उपमा दी गई है / यह उपमा मात्र समझाने के लिए है। वहाँ की उष्णता तो इनसे अनेकानेकगुणित है। वहाँ की गर्मी इतनी तीव्रतम होती है कि मेरु के बराबर का लोहपिण्ड भी उसमें गल सकता है। जिन नरकभूमियों में शीत है, वहाँ की शीतलता भी असाधारण है। शीतप्रधान नरकभूमि में से यदि किसी नारक को लाकर यहाँ बर्फ पर लिटा दिया जाए, ऊपर से बर्फ ढंक दिया जाए और पार्श्वभागों में भी बर्फ रख दिया जाए तो उसे बहुत राहत का अनुभव होगा। वह ऐसी विधान्ति का अनुभव करेगा कि उसे निद्रा आ जाएगी। इससे वहां की शीतलता की थोड़ी-बहुत कल्पना की जा सकती है। ___ इसी प्रकार की क्षेत्रजनित अन्य वेदनाएँ भी वहाँ असामान्य हैं, जिनका उल्लेख पूर्व में किया गया है। परमाधार्मिक देवों द्वारा दिये जाने वाले घोर कष्टों का कथन भी किया जा चुका है / ज्यों ही कोई पापी जीव नरक में उत्पन्न होता है, ये असुर उसे नाना प्रकार की यातनाएं देने के लिए सन्नद्ध हो जाते हैं और जब तक नारक जीव अपनी लम्बी आयु पूरी नहीं कर लेता तब तक वे निरन्तर उसे सताते ही रहते हैं। किन्तु परमाधामियों द्वारा दी जाने वाली वेदना तीसरे नरक तक ही होती है, क्योंकि ये तीसरे नरक से आगे नहीं जाते / चौथे, पाँचवें, छठे और सातवें नरक में दो निमित्तों से ही वेदना होती है-भूमिजनित और परस्परजनित / प्रस्तुत सूत्र में परस्परजनित वेदना का उल्लेख किया गया है। नारकों को भव के निमित्त से वैक्रियलब्धि प्राप्त होती है। किन्तु वह लब्धि स्वयं उनके लिए और साथ ही अन्य नारकों के लिए यातना का कारण बनती है। वैक्रियलब्धि से दुःखों से बचने के लिए वे जो शरीर निर्मित करते हैं, उससे उन्हें अधिक दु.ख की ही प्राप्ति होती है। भला सोचते हैं, पर बुरा होता है / इसके अतिरिक्त जैसे यहाँ श्वान एक-दूसरे को सहन नहीं करता एक दूसरे को देखते ही घुर्राता है, झपटता है, आक्रमण करता है, काटता-नोंचता है; उसी प्रकार नारक एक दूसरे को देखते ही उस पर आक्रमण करते हैं, विविध प्रकार के शस्त्रों से-जो वैक्रियशक्ति से बने होते हैं हमला करते हैं। शरीर का छेदन-भेदन करते हैं। अंगोपांगों को काट डालते हैं / इतना त्रास देते हैं जो हमारी कल्पना से भी बाहर है / यह वेदना सभी नरकभूमियों में भोगनी पड़ती है। नरकों का वर्णन जानने के लिए जिज्ञासु जनों को सूत्रकृतांगसूत्र' के प्रथमश्रुत का 'नरकविभक्ति' नामक पंचम अध्ययन भी देखना चाहिए / ३२--तस्थ य विग-सुणग-सियाल-काक-मज्जार-सरभ-वीविय-वियग्घग-सचूल-सीह-वप्पियखुहाभिभूहि णिच्चकालमसिएहि घोरा रसमाण-भीमरूवेहि प्रक्कमित्ता दढदाढागाढ-उबक-कडियसुतिक्ख-णह-फालिय-उद्धदेहा विच्छिपते समंतप्रो विमुक्कसंधिबंधणा वियंगियंगमंगा कंक-कुरर-गिढघोर-कट्ठवायसगणेहि य पुणो खरथिरवटणक्ख-लोहडेहि उवइत्ता पक्खाहय-तिक्ख-णक्ख- विक्किण्णजिम्भंछिय-णयणणिहमोलुग्गविगय-वयणा उपकोसंता य उप्पयंता णिपयंता भमंता। ३२-नरक में दर्पयुक्त-मदोन्मन्त, मानो सदा काल से भूख से पीडित, जिन्हें कभी भोजन न मिला हो, भयावह, घोर गर्जना करते हुए, भयंकर रूप वाले भेड़िया, शिकारी कुत्ते, गीदड़, कौवे, १-पागम प्रकाशन समिति ब्यावर द्वारा प्रकाशित सूत्रकृतांग प्रथम भाग, पृ. 286 से 314 . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy