SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नारकों को दिया जाने वाला सोमहर्षक दुःख] [33 (सेंमल) के कांटों पर उन्हें इधर-उधर घसीटा जाता है / काष्ठ के समान उनकी चीर-फाड़ की जाती है। उनके पैर और हाथ जकड़ दिए जाते हैं / सैकड़ों लाठियों से उन पर प्रहार किए जाते हैं / गले में फंदा डाल कर लटका दिया जाता है / उनके शरीर को शूली के अग्रभाग से भेदा जाता है / झूठे मादेश देकर उन्हें ठगा जाता-धोखा दिया जाता है / उनको भत्सना की जाती है, अपमानित किया जाता है / (उनके पूर्वभव में किए गए घोर पापों की) घोषणा करके उन्हें वधभूमि में घसीट कर ले जाया जाता है / वध्य जीवों को दिए जाने वाले सैकड़ों प्रकार के दुःख उन्हें दिए जाते हैं। विवेचन-मूल पाठ का प्राशय स्पष्ट है। इसका विवरण करने की आवश्यकता नहीं। नरकभूमि के कारण होने वाली वेदनाओं (क्षेत्र-वेदनाओं) का पहले प्रधानता से वर्णन किया गया था / प्रस्तुत पाठ में परमाधामी देवों द्वारा दी जाने वाली भयानक यातनाओं का दिग्दर्शन कराया गया है। पाठ से स्पष्ट है कि परमाधामी जीव जब नारकों को व्यथा प्रदान करते हैं तब वे उनके पूर्वकृत पापों की उद्घोषणा भी करते हैं, अर्थात उन्हें अपने कृत्त पापों का स्मरण भी कराते हैं। नारकों के पाप जिस कोटि के होते हैं, उन्हें प्राय: उसी कोटि को यातना दी जाती है। जैसे-जो लोग जीवित मुर्गा-मुर्गी को उबलते पानी में डाल कर उबालते हैं, उन्हें कंदु और महाकु भी में उबाला जाता है / जो पापी जीववध करके मांस को काटते-भूनते हैं, उन्हें उसी प्रकार काटा-भूना जाता है। जो देवी-देवता के आगे बकरा आदि प्राणियों का घात करके उनके खण्ड-खण्ड करते हैं, उनके शरीर के भी नरक में परमाधामियों द्वारा तिल-तिल जितने खण्ड-खण्ड किए जाते हैं। यही बात प्रायः अन्य वेदनाओं के विषय में भी जान लेना चाहिए। २६-एवं ते पुटवकम्मकयसंचयोवतत्ता गिरयग्गिमहग्गिसंपलिता गाढदुक्खं महाभयं कक्कसं असायं सारीरं माणसं य तिब्धं दुविहं वेएंति वेयणं पावकम्मकारी बहूणि पलिओवम-सागरोवमाणि कलुणं पालेति ते प्रहाउयं जमकाइयतासिया य सदं करेंति भोया। २६-इस प्रकार वे नारक जीव पूर्व जन्म में किए हुए कर्मों के संचय से सन्तप्त रहते हैं / महा-अग्नि के समान नरक की अग्नि से तीव्रता के साथ जलते रहते हैं / बे पापकृत्य करने वाले जीव प्रगाढ दुःख-मय, घोर भय उत्पन्न करने वाली, अतिशय कर्कश एवं उशारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रकार की असातारूप वेदना का अनुभव करते रहते हैं / उनकी यह वेदना बहुत पल्योपम और सागरोपम काल तक रहती है / वे अपनी आयु के अनुसार करुण अवस्था में रहते हैं / वे यमकायिक देवों द्वारा त्रास को प्राप्त होते हैं और (दुस्सह वेदना के वशीभूत हो कर) भयभीत होकर शब्द करते हैं-रोते-चिल्लाते हैं। विवेचन–प्रस्तुत पाठ में नारकों के सम्बन्ध में 'महाउयं' पद का प्रयोग किया गया है / यह पद सूचित करता है कि जैसे सामान्य मनुष्य और तिथंच उपघात के निमित्त प्राप्त होने पर अकालमरण से मर जाते हैं, अर्थात दीर्घकाल तक भोगने योग्य आयु को अल्पकाल में, यहाँ तक कि अन्तमहत में भोग कर समाप्त कर देते हैं, वैसा नारकों में नहीं होता / उनकी आयु निरुपक्रम होती है। जितने काल की आयु बँधी है, नियम से उतने ही काल में यह भोगी जाती है / जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, नारकों का आयुष्य बहुत लम्बा होता है। वर्षों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy