________________ 16] [प्रश्नध्याकरणसूत्र : शु. 1, अ. 1 १०-जल, स्थल और आकाश में विचरण करने वाले पंचेन्द्रिय प्राणी तथा द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय अथवा चतुरिन्द्रिय प्राणी अनेकानेक प्रकार के हैं / इन सभी प्राणियों को जीवन-प्राणधारण किये रहना-जीवित रहना प्रिय है / मरण का दुःख प्रतिकूल-अनिष्ट-अप्रिय है। फिर भी अत्यन्त संक्लिष्टकर्मा-अतीव क्लेश उत्पन्न करने वाले कर्मों से युक्त-पापी पुरुष इन बेचारे दीन-हीन प्राणियों का बध करते हैं। विवेचन-जगत् में अगणित प्राणी हैं / उन सब की गणना सर्वज्ञ के सिवाय कोई छद्मस्थ नहीं जान सकता, किन्तु उनका नामनिर्देश करना तो सर्वज्ञ के लिए भी संभव नहीं / अतएव ऐसे स्थलों पर / वर्गीकरण का सिद्धान्त अपनाना अनिवार्य हो जाता है। यहाँ यही सिद्धान्त अपनाया गया है। तिथंच समस्त स जीवों को जलचर, स्थलचर, खेचर (आकाशगामी) और द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रियों में वर्गीकृत किया गया है / द्वीन्द्रियादि जीव विकलेन्द्रिय-अधूरी-अपूर्ण इन्द्रियों वाले कहलाते हैं, क्योंकि इन्द्रियाँ कुल पांच हैं--स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय और श्रोत्रेन्द्रिय / इनमें से किन्हीं जीवों को परिपूर्ण पांचों प्राप्त होती हैं, किन्हीं को चार, तीन, दो और एक ही प्राप्त होती है। प्रस्तुत में एकेन्द्रिय जीवों को विवक्षा नहीं की गई है। केवल त्रस जीवों का ही उल्लेख किया गया है और उनमें भी तिर्यंचों का / यद्यपि पहले जलचर, स्थलचर, उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प, नभश्चर जीवों का पृथक्-पृथक् उल्लेख किया गया है, तथापि यहाँ तिर्यंच पंचेन्द्रियों को जलचर, स्थलचर और नभश्चर-इन तीन भेदों में ही समाविष्ट कर दिया गया है / यह केवल विवक्षाभेद है। / ये सभी प्राणी जीवित रहने की उत्कट अभिलाषा वाले होते हैं। जैसे हमें अपने प्राण प्रिय हैं, इसी प्रकार इन्हें भी अपने-अपने प्राण प्रिय हैं। प्राणों पर संकट आया जान कर सभी अपनी रक्षा के लिए अपने सामर्थ्य के अनुसार बचाव का प्रयत्न करते हैं। मृत्यु उन्हें भी अप्रिय है-अनिष्ट है। किन्तु कलुषितात्मा विवेकविहीन जन इस तथ्य की ओर ध्यान न देकर उनके वध में प्रवृत्त होते हैं / ये प्राणी दीन हैं, मानव जैसा बचाव का सामर्थ्य भी उनमें नहीं होता / एक प्रकार से ये प्राणी मनुष्य के छोटे बन्धु हैं, मगर निर्दय एवं क्रूर मनुष्य ऐसा विचार नहीं करते। हिंसा करने के प्रयोजन ११-इमेहि विविहेहि कारणेहि, कि ते ? चम्म-वसा-मंस-मेय-सोणिय-जग-फिल्फिस-मत्थुलुग-हिययंत-पित्त-फोफस-दंतहा अदिमिज-गह-णयण-कण्ण-हारुणि-णक्क-धमणि-सिंग-दाढि-पिच्छविस-विसाण-वालहेउं / हिसंति य भमर-महुकरिगणे रसेसु गिद्धा तहेव तेइंदिए सरीरोवगरणट्ठयाए किवणे बेइंदिए बहवे वत्थोहर-परिमंडणटा। ११-चमड़ा, चर्बी, मांस, मेद, रक्त, यकृत, फेफड़ा, भेजा, हृदय, प्रांत, पित्ताशय, फोफस (शरीर का एक विशिष्ट अवयव), दांत, अस्थि-हड्डी, मज्जा, नाखून, नेत्र, कान, स्नायु, नाक, धमनी, सींग, दाढ़, पिच्छ, विष, विषाण-हाथी-दांत तथा शूकरदंत और बालों के लिए (हिंसक प्राणी जीवों की हिंसा करते हैं)। रसासक्त मनुष्य मधु के लिए भ्रमर-मधुमक्खियों का हनन करते हैं, शारीरिक सुख या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org