SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 280] [प्रानख्याकरणसूत्र : कथाएँ फैल गई थी / नलिये अनेक राजा-महाराजाओं ने रुधिर राजा से उसकी याचना की थी। राजा बड़े असमंजस में पड़ गया कि वह किसको अपनी कन्या दे, किसको न दे ? अन्ततोगत्वा उसने रोहिणी के योग्य वर का चुनाव करने के लिये स्वयंवर रचने का निश्चय किया / रोहिणी पहले से ही वसुदेवजी के गुणों पर मुग्ध थी। वसुदेवजी भी रोहिणी को चाहते थे। वसुदेवजी उन दिनों गुप्तरूप से देशाटन के लिये भ्रमण कर रहे थे। राजा रुधिर की ओर से स्वयंवर की आमंत्रणपत्रिकाएँ जरासंध आदि सब राजाओं को पहुँच चुकी थीं। फलतः जरासंध आदि अनेक राजा स्वयंवर में उपस्थित हुए। वसुदेवजी भी स्वयंवर का समाचार पाकर वहाँ आ पहुंचे। वसुदेवजी ने देखा कि उन बड़े-बड़े राजाओं के समीप बैठने से मेरे मनोरथ में विघ्न पड़ेगा, अतः मृदंग बजाने वालों के बीच में वैसा ही वेष बनाकर बैठ गए। वसुदेवजी मृदंग बजाने में बड़े निपुण थे। वे मृदंग बजाने लगे / नियत समय पर स्वयंवर का कार्य प्रारम्भ हा / ज्योतिषी के द्वारा शुभमहर्त की सचना पाते ही राजा रुधिर ने रोहिणो (कन्या) को स्वयंवर में प्रवेश कराया। रूपराशि रोहिणी ने अपनी हंसगामिनी गति एवं नपुर की झंकार से तमाम राजाओं को आकर्षित कर लिया। सबके सब टकटकी लगाकर उसकी ओर देख रहे थे। रोहिणी धीरे-धीरे अपनी दासी के पीछे-पीछे चल रही थी। सब राजाओं के गुणों और विशेषताओं से परिचित दासी क्रमशः प्रत्येक राजा के पास जाकर उसके नाम, देश, ऐश्वर्य, गुण और विशेषता का स्पष्ट वर्णन करती जाती थी। इस प्रकार दासी द्वारा समुद्रविजय, जरासंध आदि तमाम राजाओं का परिचय पाने के बाद उन्हें स्वीकार न कर रोहिणी जब आगे बढ़ गई तो वासुदेवजी हर्षित होकर मृदंग बजाने लगे। मृदंग की सुरीली आवाज में ही उन्होंने यह व्यक्त किया 'मुग्धमृगनयनयुगले ! शीघ्रमिहागच्छ मैव चिरयस्व / कुलविक्रमगुणशालिनि ! त्वदर्थमहमिहागतो यदिह / / ' अर्थात हे मुग्धमृगनयने ! अब झटपट यहाँ आ जायो / देर मत करो। हे कुलीनता और पराक्रम के गुणों से सुशोभित सुन्दरी ! मैं तुम्हारे लिये ही यहाँ (मृदंगवादकों की पंक्ति में) आकर बैठा हूँ। मृदंगवादक के वेष में वसुदेव के द्वारा मृदंग से ध्वनित उक्त आशय को सुन कर रोहिणी हर्ष के मारे पुलकित हो उठी / जैसे निर्धन को धन मिलने पर वह आनन्दित हो जाता है, वैसे ही निराश रोहिणी भी आनन्दविभोर हो गई और शीघ्र ही वसुदेवजी के पास जाकर उनके गले में वरमाला डाल दी। एक साधारण मृदंग बजाने वाले के गले में वरमाला डालते देख कर सभी राजा, राजकुमार विक्षुब्ध हो उठे। सारे स्वयंवरमंडप में शोर मच गया। सभी राजा चिल्लाने लगे--"बड़ा अनर्थ हो गया ! इस कन्या ने कुल की रीति-नीति पर पानी फेर दिया। इसने इतने तेजस्वी, सुन्दर और पराक्रमी राजकुमारों को ठुकरा कर और न्यायमर्यादा को तोड़कर एक नीच वादक के गले में वरमाला डाल दी ! यदि इसका वादक के साथ अनुचित संबंध या गुप्त-प्रेम था तो राजा रुधिर ने स्वयंवर रचाकर क्षत्रिय कुमारों को आमन्त्रित करने का नाटक क्यों रचा! यह तो हमारा सरासर अपमान है।" इस प्रकार के अनेक आक्षेप-विक्षेपों से उन्होंने राजा को परेशान कर दिया। राजा रुधिर किंकर्तव्यविमूढ और आश्चर्यचकित होकर सोचने लगा--विचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy