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________________ 278] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : कथाएँ खिलाफ युद्ध कैसे करूं? वे मेरे आत्मीयजन हैं और युद्ध नहीं करूंगा तो सुभद्रा के साथ हुआ प्रेमबन्धन टूट जाएगा। इस प्रकार दुविधा में पड़े हुए अर्जुन को सुभद्रा ने क्षत्रियोचित कर्त्तव्य के लिये प्रोत्साहित किया। अर्जुन ने अपना गांडीव धनुष उठाया और श्रीकृष्णजी द्वारा भेजी हुई सेना से लड़ने के लिये आ पहुँचा। दोनों में जम कर युद्ध हुआ। अर्जुन के अमोघ बाणों की वर्षा से श्रीकृष्ण जी की सेना तितर-बितर हो गई। विजय अर्जुन की हुई। अन्ततोगत्वा सुभद्रा ने वीर अर्जुन के गले में वरमाला डाल दी, दोनों का पाणिग्रहण हो गया। इसी वीरांगना सुभद्रा की कुक्षि से वीर अभिमन्यु का जन्म हया, जिसने अपनी नववध का मोह छोड़ कर छोटी उम्र में ही महाभारत के युद्ध में वीरोचित क्षत्रियकर्त्तव्य बजाया और वहीं वीरगति को पाकर इतिहास में अमर हो गया। सचमुच वीर माता ही वीर पुत्र को पैदा करती है। मतलब यह है कि रक्तसुभद्रा को प्राप्त करने के लिये अर्जुन ने श्रीकृष्ण सरीखे आत्मीय जन के विरुद्ध भी युद्ध किया। अहित्रिका अहिन्निका की कथा अप्रसिद्ध होने से उस पर प्रकाश डालना अशक्य है। कई लोग 'अहिन्नियाए' पद के बदले 'अहिल्लियाए' मानते हैं। उसका अर्थ होता है अहिल्या के लिये हुआ संग्राम ! अगर यह अर्थ हो तो वैष्णव रामायण में उक्त 'अहिल्या' की कथा इस प्रकार हैअहिल्या गौतम ऋषि की पत्नी थी। वह बड़ी सुन्दर और धर्मपरायणा स्त्री थी / इन्द्र उसका रूप देख कर मोहित हो गया। एक दिन गौतमऋषि बाहर गए हुए थे। इन्द्र ने उचित अवसर जान कर गौतमऋषि का रूप बनाया और छलपूर्वक अहिल्या के पास पहुँच कर संयोग की इच्छा प्रकट को / निर्दोष अहिल्या ने अपना पति जानकर कोई आनाकानी न की / इन्द्र अनाचार सेवन करके जब गौतमऋषि पाए तो उन्हें इस वत्तान्त का पता चला / उन्होंने इन्द्र को शाप दिया कि तेरे एक हजार भग हो जाएँ। वैसा ही हुआ। बाद में, इन्द्र के बहुत स्तुति करने पर ऋषि ने उन भगों के स्थान पर एक हजार नेत्र बना दिए। परन्तु अहिल्या पत्थर की तरह निश्चेष्ट होकर तपस्या में लीन हो गई / वह एक ही जगह गुमसुम होकर पड़ी रहती। एक बार श्रीराम विचरण करतेकरते आश्रम के पास से गुजरे तो उनके चरणों का स्पर्श होते ही वह जाग्रत होकर उठ खड़ी हुई। ऋषि ने भी प्रसन्न होकर उसे पुन: अपना लिया / सुवर्णगुटिका सिन्धु-सौवीर देश में वीतभय नामक एक पत्तन था। वहाँ उदयन राजा राज्य करता था / उसकी महारानी का नाम पद्मावती था। उसकी देवदत्ता नामक एक दासी थी / एक बार देशदेशान्तर में भ्रमण करता हुआ एक परदेशी यात्री उस नगर में आ गया। राजा ने उसे मन्दिर के निकट धर्मस्थान में ठहराया। कर्मयोग से वह वहाँ रोगग्रस्त हो गया / रुग्णावस्था में इस दासी ने उसकी बहुत सेवा की। फलतः आगन्तुक ने प्रसन्न होकर इस दासी को सर्वकामना पूर्ण करने वाली 100 गोलियां दे दी और उनकी महत्ता एवं प्रयोग करने की विधि भी बतला दी। प्रथम तो स्त्रीजाति, फिर दासी / भला दासी को उन गोलियों का सदुपयोग करने की बात कैसे सझती ? उस बदसूरत दासी ने सोचा--"क्यों नहीं, मैं एक गोली खा कर सुन्दर बन जाऊ !" उसने आजमाने के लिये एक गोली मुह में डाल ली। गोली के प्रभाव से वह दासी सोने के समान रूप वाली खूबसूरत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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