________________ 272] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : कथाएँ यह बात सुनते ही विषयविलासानुरागी राजा पद्मनाभ के चित्त में द्रौपदी के प्रति अनुराग का अंकर पैदा हो गया। उसे द्रौपदी के बिना एक क्षण भी वर्षों के समान संतापकारी मालम होने लगा। उसने तत्क्षण पूर्व-संगतिक देवता को आराधना की। स्मरण करते ही देव प्रकट हुआ / राजा ने अपना मनोरथ पूर्ण कर देने की बात उससे कही। अपने महल में सोई हुई द्रौपदी को देव ने शय्या सहित उठा कर पद्मनाभ नप के क्रीडोद्यान में ला रखा / जागते ही द्रौपदी अपने को अपरिचित प्रदेश में पाकर घबरा उठी / वह मन ही मन पंचपरमेष्ठी का स्मरण करने लगी। इतने में राजा पद्मनाभ ने पाकर उससे प्रेमयाचना की, अपने वैभव एवं सुख-सुविधाओं आदि का भी प्रलोभन दिया। नीतिकुशल द्रौपदी ने सोचा-'इस समय यह पापात्मा कामान्ध हो रहा है। अगर मैंने साफ इन्कार कर दिया तो विवेकशून्य होने से शायद 'यह मेरा शीलभंग करने को उद्यत हो जाए। अतः फिलहाल अच्छा यही है कि उसे भी बुरा न लगे और मेरा शील भी सरक्षित रहे। ऐसा सोच कर द्रौपदी ने पद्मनाभ से कहा—'राजन ! आप मझे छह महीने की अवधि इस पर सोचने के लिये दीजिये। उसके बाद आपकी जैसी इच्छा हो करना।' उसने बात मंजूर कर ली। इसके बाद द्रौपदी अनशन आदि तपश्चर्या करती हुई सदा पंचपरमेष्ठी के ध्यान में लीन रहने लगी। पांडवों की माता कुन्ती द्रौपदीहरण के समाचार लेकर हस्तिनापुर से द्वारिका पहुँची और श्रीकृष्ण से द्रौपदी का पता लगाने और लाने का आग्रह किया। इसी समय कलहप्रिय नारदऋषि भी वहाँ आ धमके। श्रीकृष्ण ने उनसे पूछा- "मुने ! आपकी सर्वत्र अबाधित गति है / अढाई द्वीप में ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ आपका गमन न होता हो। अतः आपने कहीं द्रौपदी को देखा हो तो कृपया बतलाइये।" नारदजी बोले-'जनार्दन ! धातकीखण्ड में अमरकका नाम की राजधानी है। वहाँ के राजा पद्मनाभ के क्रीड़ोद्यान के महल में मैंने द्रौपदी जैसी एक स्त्री को देखा तो है / " नारदजी से द्रौपदी का पता मालूम होते ही श्रीकृष्णजी पांचों पांडवों को साथ लेकर अमरकंका की ओर रवाना हुए। रास्ते में लवणसमुद्र था, जिसको पार करना उनके बूते की बात नहीं थी। तब श्रीकृष्णजी ने तेला (तीन उपवास) करके लवणसमुद्र के अधिष्ठायक देव की आराधना की। देव प्रसन्न होकर श्रीकृष्णजी के सामने उपस्थित हुा / श्रीकृष्णजी के कथनानुसार समुद्र में उसने रास्ता बना दिया। फलत: श्रीकृष्णजी पांचों पांडवों को साथ लिये राजधानी अमरकंका नगरी में पहुँचे और एक उद्यान में ठहर कर अपने सारथी के द्वारा पद्मनाभ को सूचित कराया। पद्मनाभ अपनी सेना लेकर युद्ध के लिये प्रा डटा। दोनों ओर से युद्ध प्रारम्भ होने की दुन्दुभि बज उठी। बहुत देर तक दोनों में जम कर युद्ध हुआ। पद्मनाभ ने जब पांडवों को परास्त कर दिया तब श्रीकृष्ण स्वयं युद्ध के मैदान में आ डटे और उन्होंने अपना पांचजन्य शंख बजाया / पांचजन्य का भीषण नाद सुनते ही पद्मनाभ की तिहाई सेना तो भाग खड़ी हुई, एक तिहाई सेना को उन्होंने सारंग- गांडीव धनुष की प्रत्यंचा की टंकार से मूच्छित कर दिया। शेष बची हुई तिहाई सेना और पद्मनाभ अपने प्राणों को बचाने के लिये दुर्ग में जा घुसे। श्रीकृष्ण ने नरसिंह का रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org