________________ सम्पूर्ण संवरद्वार का उपसंहार १७१–एयाई वयाई पंच वि सुब्वय-महन्वयाई हेउसय-विवित्त-पुक्कलाई कहियाइं अरिहंतसासणे पंच समासेण संवरा, वित्थरेण उ पणवीसति / समियसहिय-संवुडे सया जयण-घडण-सुविसुद्धदसणे एए अणुचरिय संजए चरमसरीरधरे भविस्सइ / पण्हावागरणे णं एगो सुयक्खंधो, दस अज्झयणा एक्कसरगा दससु चेव दिवसेसु उद्दिसिज्जति एगंतरेसु आयंबिलेसु णिरुद्ध सु आउत्त-भत्तपाणएणं / अंगं जहा आयारस्स / // इइ पण्हवागरणं सुत्तं समत्तं // १७१-हे सुक्त ! ये पाँच संवररूप महावत सैकड़ों हेतुओं से पुष्कल-विस्तीर्ण हैं। अरिहंत-शासन में ये संवरद्वार संक्षेप में (पाँच) कहे गए हैं। विस्तार से (प्रत्येक की पाँच-पाँच भावनाएँ होने से) इनके पच्चीस प्रकार होते हैं। जो साधु ईर्यासमिति आदि (पूर्वोक्त पच्चीस भावनाओं) सहित होता है अथवा ज्ञान और दर्शन से सहित होता है तथा कषायसवर / इन्द्रियसंवर से संवृत होता है, जो प्राप्त संयमयोग का यत्नपूर्वक पालन करता है और अप्राप्त संयमयोग की प्राप्ति के लिए यत्नशील रहता है, सर्वथा विशुद्ध श्रद्धानवान् होता है, वह इन संवरों की आराधना करके अशरीर—मुक्त होगा। प्रश्नव्याकरण में एक श्रुतस्कन्ध है, एक सदृश दस अध्ययन हैं। उपयोगपूर्वक आहारपानी ग्रहण करने वाले साधु के द्वारा, जैसे प्राचारांग का वाचन किया जाता है, उसी प्रकार एकान्तर आयंबिल युक्त तपस्यापूर्वक दस दिनों में इन (दस अध्ययनों) का वाचन किया जाता है। // प्रश्नव्याकरण सूत्र समाप्त // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org