________________ अपरिपहनत की पांच भावनाएँ] [259 पंचम भावना-स्पर्शनेन्द्रिय-संयम १६९–पंचमगं–फासिदिएण फासिय फासाई मणुण्णभद्दगाईकि ते? दग-मंडव-हार- सेयचंदण- सीयल-विमल-जल-विविहकुसुम- सत्थर- ओसीर-मुत्तिय- मुणालदोसिणा-पेहुणउक्खेवग-तालियंट-वीयणग-जणियसुहसोयले य पवणे गिम्हकाले सुहफासाणि य बहूणि सयणाणि आसणाणि य पाउरणगुणे य सिसिरकाले अंगारपयावणा य आयवणिद्धमउयसीय-उसिणलहुआ य जे उउसुहफासा अंगसुह-णिव्वुइगरा ते अण्णेसु य एवमाइएसु फासेसु मणुण्णभद्दगेसु ण तेसु समणेण सज्जियन्वं, ण रज्जियन्वं, ण गिज्झियन्वं, ण मुज्यिव्वं, ण विणिग्घायं आवज्जियव्वं, ण लुभियव्वं, ण अज्मोववजियव्वं, ण तूसियव्वं, ण हसियवं, ण सइंच मइंच तत्थ कुज्जा / पुणरवि फासिदिएण फासिय फासाइं अमणुण्णपावगाइं-- कि ते? अणेगवह-बंध-तालणंकण-अइभारारोवणए, अंगभंजण-सूईणखप्पवेस-गायपच्छणण-लक्खारसखार-तेल्ल-कलकलंत-तउय- सोसग-काल-लोहसिचण-हडिबंधण-रज्जुणिगल-संकल- हत्थंडुय-कुभियागदहण-सीहपुच्छण-उन्बंधण-सूलभेय-गयचलणमलण-करचरण-कण्ण-णासोट्ट-सीसच्छेयण जिम्भच्छेयणवसण-णयण-हियय-दंतमंजण- जोत्तलय-कसप्पहार-पाय-पण्हि-जाणु-पत्थर- णिवाय-पीलण- कविकच्छअगणि-विच्छ्यडक्क-वायातव-दंसमसग-णिवाए दुणिसज्जदुण्णिसीहिय-दुनिभ-कक्खड-गुरु-सीय-उसिणलुक्खेसु बहुविहेसु अण्णेसु य एवमाइएसु फासेसु अमणुण्णपावगेसु ण तेसु समणेण रूसियन्वं, ण होलियन्वं, ण णिदियध्वं, ण गरहियव्वं, ण खिसियठवं, गछिदियव्वं, ण भिदियब्वं, ण वहेयव्वं, ण दुगंछावत्तियव्वं च लुम्मा उप्पाए। एवं फासिदियभावणाभाविओ भवइ अंतरप्पा, मणुण्णामणुण्ण-सुम्भि-दुनिभरागदोसपणिहियप्पा साहू मणवयणकायगुत्ते संवुडेणं पणिहिइंदिए चरिज्ज धम्म / १६६---स्पर्शनेन्द्रिय से मनोज्ञ और सुहावने स्पर्शों को छूकर (रागभाव नहीं धारण करना चाहिए)। (प्र.) वे मनोज्ञ स्पर्श कौन-से हैं ? (उ.) जलमण्डप-झरने वाले मण्डप, हार, श्वेत चन्दन, शीतल निर्मल जल, विविध पुष्पों की शय्या-फूलों की सेज, खसखस, मोती, पद्मनाल, चन्द्रमा की चाँदनी तथा मोर-पिच्छी, तालवृन्त–ताड़ का पंखा, वोजना से की गई सुखद शीतल पवन में, ग्रीष्मकाल में सुखद स्पर्श वाले अनेक प्रकार के शयनों और प्रासनों में, शिशिरकाल--शीतकाल में प्रावरण गुण वाले अर्थात् ठण्ड से बचाने वाले वस्त्रादि में, अंगारों से शरीर को तपाने, धूप, स्निग्ध-तेलादि पदार्थ, कोमल और शीतल, गर्म और हल्के–जो ऋतु के अनुकूल सुखप्रद स्पर्श वाले हों, शरीर को सुख और मन को अानन्द देने वाले हों, ऐसे सब स्पर्शों में तथा इसी प्रकार के अन्य मनोज्ञ और सुहावने स्पर्शों में श्रमण को प्रासक्त नहीं होना चाहिए, अनुरक्त नहीं होना चाहिए, गृद्ध नहीं होना चाहिए-उन्हें प्राप्त करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org