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________________ निम्रन्यों की 31 उपमाएँ] [251 सुण्णागारेश्व अपडिकम्मे / सुग्णागारावणस्संतो णिवायसरणप्पदीवज्माणमिव णिप्पकंपे। जहा खुरो चेव एगधारे / जहा अही चेव एगविट्ठी। आगासं चेव णिरालंबे। विहगे विव सवओ विप्पमुक्के / कयपरणिलए जहा चेव उरए। अप्पडिबद्ध अणिलोव्व / जीवो व्व अपडिहयगई। १६३-मुनि आगे कही जाने वाली उपमानों से मण्डित होता है (1) कांसे का अत्यन्त निर्मल उत्तम पात्र जैसे जल के सम्पर्क से मुक्त रहता है, वैसे हो साधु रागादि के बन्ध से मुक्त होता है। (2) शंख के समान निरंजन अर्थात् रागादि के कालुष्य से रहित, अतएव राग, द्वेष और मोह से रहित होता है। (3) कर्म-कच्छप की तरह इन्द्रियों का गोपन करने वाला। (4) उत्तम शुद्ध स्वर्ण के समान शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त / (5) कमल के पत्ते के सदृश निर्लेप / (6) सौम्य-शीतल स्वभाव के कारण चन्द्रमा के समान / (7) सूर्य के समान तपस्तेज से देदीप्यमान / (8) गिरिवर मेरु के समान अचल-परीषह आदि में अडिग / (6) सागर के समान क्षोभरहित एवं स्थिर / (10) पृथ्वी के समान समस्त अनुकूल एवं प्रतिकूल स्पर्शों को सहन करने वाला। (11) तपश्चर्या के तेज से अन्तरंग में ऐसा दीप्त जैसे भस्मराशि से आच्छादित अग्नि हो। (12) प्रज्वलित अग्नि के सदश तेजस्विता से देदीप्यमान / (13) गोशीर्ष चन्दन की तरह शीतल और अपने शील के सौरभ से युक्त / (14) ह्रद—(पवन के न होने पर) सरोवर के समान प्रशान्तभाव वाला। (15) अच्छी तरह घिस कर चमकाए हुए निर्मल दर्पणतल के समान स्वच्छ, प्रकट रूप से मायारहित होने के कारण अतीव निर्मल जीवन वाला-शुद्ध भाव वाला। (16) कर्म-शत्रुओं को पराजित करने में गजराज की तरह शूरवीर / (17) वृषभ की तरह अंगीकृत व्रत-भार का निर्वाह करने वाला। . (18) मृगाधिपति सिंह के समान परोषहादि से अजेय / (16) शरत्कालीन जल के सदृश स्वच्छ हृदय वाला। (20) भारण्ड पक्षी क समान अप्रमत्त-सदा सजग / 2) गेंडे के सींग के समान अकेला-अन्य की सहायता को अपेक्षा न रखने वाला। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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