________________ साधु के उपकरण] गया है कि रोग अथवा अातंक इतना उग्र हो कि लेशमात्र भी चैन न लेने दे, बहुत बलशाली हो, थोड़े समय के लिए नहीं वरन् दीर्घ काल पर्यन्त भोगने योग्य हो, अतीव कर्कश हो, तन और मन को भीषण व्यथा पहुँचाने वाला हो, यहाँ तक कि जीवन का अन्त करने वाला भी क्यों न हो, तथापि साधु को ऐसी घोरतर अवस्था में प्राहार-पानी और औषध-भैषज्य का कदापि संग्रह नहीं करना चाहिए / संग्रह परिग्रह है और अपरिग्रही साधु के जीवन में संग्रह को कोई स्थान नहीं है। साधु के उपकरण १६१-जं पि य समणस्स सुविहियस्स उ पडिग्गहधारिस्स भवइ भायण-मंडोवहिउवगरणं पडिग्गहो पायबंधणं पायकेसरिया पायठवणं च पडलाइं तिण्णेव, रयत्ताणं च गोच्छओ, तिण्णेव य पच्छागा, रयहरण-चोलपट्टग-मुहणंतगमाईयं / एवं पि य संजमस्स उववहणट्ठयाए वायायव-दंसमसग-सीय-परिरक्खणट्टयाए उवगरणं रामदोसरहियं परिहरियन्वं, संजएण णिच्चं पडिलेहणपष्फोडण-पमज्जणाए अहो य राओ य अप्पमत्तेण होइ सययं णिक्खिवियव्वं च गिहियव्वं च भायणभंडोवहि-उवगरणं। १६१-पात्रधारी सुविहित साधु के पास जो भी पात्र, मृत्तिका के भांड, उपधि और उपकरण होते हैं, जैसे—पात्र, पात्रबन्धन, पात्रकेसरिका, पात्रस्थापनिका, पटल, रजस्त्राण, गोच्छक, तीन प्रच्छाद, रजोहरण, चोलपट्टक, मुखानन्तक-मुखवस्त्रिका, ये सब भी संयम की वृद्धि के लिए होते हैं तथा वात-प्रतिकूल वायु, ताप, धूप, डांस-मच्छर और शीत से रक्षण-बचाव के लिए हैं। इन सब उपकरणों को राग और द्वेष से रहित होकर साधु को धारण करने चाहिए अर्थात् रखना चाहिए / सदा इनका प्रतिलेखन-देखना, प्रस्फोटन---झाड़ना और प्रमार्जन-पौंछना चाहिए / दिन में और रात्रि में सतत निरन्तर अप्रमत्त रह कर भाजन, भाण्ड, उपधि और उपकरणों को रखना और ग्रहण करना चाहिए। विवेचन-प्रकृत पाठ में 'पडिग्गहधारिस्स' इस विशेषण पद से यह सूचित किया गया है कि विशिष्ट जिनकल्पी साधु के नहीं किन्तु पात्रधारी स्थविरकल्पी साधु के उपकरणों का यहाँ उल्लेख किया गया है / ये उपकरण संयम की वृद्धि और प्रतिकूल परिस्थितियों में से शरीर की रक्षा के लिए ही ग्रहण किए जाते हैं, यह भी इस पाठ से स्पष्ट है / इनका अर्थ इस प्रकार है पतद्ग्रह-पात्र-आहारादि के लिए काष्ठ, मृत्तिका या तूम्बे के पात्र / पात्रबन्धन-पात्रों को बांधने का वस्त्र / पात्रकेसरिका--पोंछने का वस्त्रखण्ड / पात्रस्थापन-जिस पर पात्र रक्खे जाएँ। पटल-पात्र ढंकने के लिए तीन वस्त्र। रजस्त्राण-पात्रों को लपेटने का वस्त्र / गोच्छक-पात्रादि के प्रमार्जन के लिए पूजनी / प्रच्छाद-प्रोढने के वस्त्र (तीन)। रजोहरण--भोघा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org