________________ उत्क्षेप] [235 16. ज्ञात-अध्ययन–ज्ञाताधर्मकथा नामक अंग के 16 अध्ययन इस प्रकार हैं--(१) उत्क्षिप्त (2) संघाट (3) अण्ड (4) कूर्म (5) शैलक ऋषि (6) तुम्ब (7) रोहिणी (8) मल्ली (6) माकन्दी (10) चन्द्रिका (11) दवदव (इस नाम के वृक्षों का उदाहरण) (12) उदक (13) मण्डूक (14) तेतलि (15) नन्दिफल (16) अपरकंका (17) पाकीर्ण (18) सुषमा और (16) पुण्डरीक / 20. असमाधिस्थान इस प्रकार हैं-(१)द्र तचारित्व--संयम की उपेक्षा करके जल्दी-जल्दी चलना (2) अप्रमार्जित-चारित्व-भूमि का प्रमार्जन किए बिना उठना, बैठना, चलना आदि / (3) दुष्प्रमार्जित-चारित्व-विधिपूर्वक भूमि आदि का प्रमार्जन न करना (4) अतिरिक्त शय्यासनिकत्व--- मर्यादा से अधिक प्रासन या शय्या-उपाश्रयस्थान ग्रहण करना (5) रानिकपरिभाषित्व-अपने से बड़े प्राचार्यादि का विनय न करना, अविनय करना (6) स्थविरोपघातित्व-दीक्षा, आयु और श्रुत से स्थविर मुनियों के चित्त को किसी व्यवहार से व्यथा पहुँचाना (7) भूतोपधातित्व-जीवों का घात करना (8) संज्वलनता–बात-बातमें क्रोध करना या ईर्षा की अग्नि से जलना (8) क्रोधनता-क्रोधशील होना (10) पृष्ठिमांसकता—पीठ पीछे किसी की निन्दा करना (11) अभीक्षणमवधारकता वारंवार निश्चयकारी भाषा का प्रयोग करना (12) नये-नये कलह उत्पन्न करना, (13) शान्त हो चुके पुराने कलह को नये सिरे से जागृत करना (14) सचित्तरज वाले हाथ पैर वाले दाता से आहार लेना। (15) निषिद्धकाल में स्वाध्याय करना (16) कलहोत्पादक कार्य करना, बातें करना या उनमें भाग लेना (17) रात्रि में ऊँचे स्वर से बोलना, शास्त्रपाठ करना (18) झंझाकरत्व-गण, संघ या गच्छ में फूट उत्पन्न करने या मानसिक पीड़ा उत्पन्न करने वाले वचन बोलना (16) सूर्योदय से सूर्यास्त तक भोजन करते रहना (20) एषणासमिति के अनुसार आहार की गवेषणा आदि न करना और दोष बतलाने पर झगड़ना। 21, शवलदोष-- चारित्र को कलुषित करने वाले दोष शबलदोष कहे गए हैं / वे इक्कीस हैं, जो संक्षेप में इस प्रकार हैं- (1) हस्तकर्म करना (2) अतिक्रम, व्यतिक्रम और अतिचार रूप में मैथुनसेवन करना (3) अतिक्रमादिरूप से रात्रि में भोजन करना (4) प्राधाकर्मकरना (5) शय्यातर के आहार का सेवन करना (6) उहिष्ट, क्रीत आदि दोषों वाला पाहार करना (7) त्यागे हुए अशन आदि का उपयोग करना (8) छह महीने के भीतर एक गण का त्याग कर दूसरे गण में जाना (8) एक मास में तीन बार नाभिप्रमाण जल में अवगाहन करना (10) एक मास में तीन बार मायाचार करना (11) राजपिण्ड का सेवन करना (12) इरादापूर्वक प्राणियों की हिंसा करना (13) इरादापूर्वक मृषावाद करना (14) इरादापूर्वक अदत्तादान करना (15) जान-बूझ कर सचित्त भूमि पर कायोत्सर्ग करना (16) जान-बूझ कर गोली, सरजस्क भूमि पर, सचित्त शिला पर या घुन वाले काष्ठ पर सोना-बैठना (17) बीजों तथा जीवों से युक्त अन्य किसी स्थान पर बैठना (18) जान-बूझ कर कन्दमूल खाना (16) एक वर्ष में दस बार नाभिप्रमाण जल में अवगाहन करना (20) एक वर्ष में दस बार माया का सेवन करना और (21) वारंवार सचित्त जल से लिप्त हाथ आदि से पाहारादि ग्रहण करना / 22. परीषह-संयम-जीवन में होने वाले कष्ट, जिन्हें समभावपूर्वक सहन करके साधु कर्मों की विशिष्ट निर्जरा करता है / ये बाईस परीषह इस प्रकार हैं - खुहा पिवासा सीउण्हं दंसा चेलरई-त्थियो / चरिया निसीहिया सेज्जा, अक्कोसा वह जायणा / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org