________________ ब्रह्मचर्य-रक्षक नियम] [ 223 विवेचन-काम-वासना ऐसी प्रबल है कि तनिक-सी असावधानी होते ही मनुष्य के मन को विकृत कर देती है। यदि मनुष्य तत्काल न सम्भल गया तो वह उसके वशीभूत होकर दीर्घकालिक साधना से पतित हो जाता है और फिर न घर का न घाट का रहता है। उसकी साधना खोखली, निष्प्राण, दिखावटी या आडम्बरमात्र रह जाती है। ऐसा व्यक्ति अपने साध्य से दूर पड़ जाता है। उसका बाह्य कष्टसहन निरर्थक बन जाता है / प्रस्तुत पाठों में अत्यन्त तेजस्वी एवं प्रभावशाली शब्दों में ब्रह्मचर्य की महिमा का गान किया गया है / यह महिमागान जहाँ उसकी श्रेष्ठता को प्रदर्शित करता है, वहीं उसकी दुराराध्यता का भी सूचक है। यही कारण है कि इसकी आराधना के लिए अनेकानेक बिधि-निषेधो का दिग्दर्शन कराया गया है। जिन-जिन कार्यों - व्यापारों से काम-राग के बीज अंकुरित होने की सम्भावना हो सकती है, उन व्यवहारों से ब्रह्मचारी को सदैव बचते रहना चाहिए। ऐसे व्यवहार शास्त्रकार ने मूलपाठ में गिना दिए हैं। शरीर की विभूषा यथा-मालिश-मर्दन करना, केशों और नाखूनों को संवारना, सुगंधित वस्तुओं का उपयोग करना, स्नान करना, वारंवार हाथों-पैरों-मुख आदि को धोना आदि देहाध्यास बढ़ाने वाले व्यवहार हैं और इससे वासना को उत्तेजित होने का अवसर मिलता है। अतएव तपस्वी को इन और इसी प्रकार के अन्य व्यापारों से सदा दूर ही रहना चाहिए। इसी प्रकार नत्य, नाटक, गीत, खेल, तमाशे आदि भी साधक की दृष्टि को अन्तर्मख से बहिर्मुख बनाने वाले हैं / ऐसे प्रसंगों पर मनोवृत्ति साधना से विमुख हो जाती है और बाहर के रागरंग में डूब जाती है / अतएव साधक के लिए श्रेयस्कर यही है कि वह न ऐसे प्रसंगों को दृष्टिगोचर होने दे और न साधना में मलीनता पाने दे। सच्चे साधक को अपने उच्चतम साध्य पर-मुक्ति पर और उसके उपायों पर ही अपना सम्पूर्ण मनोयोग केन्द्रित करना चाहिए। उसे शारीरिक वासना से ऊपर उठा रहना चाहिए / जो शरीर-वासना से ऊपर उठ जाता है, उसे स्नान, दन्तधावन, देह के स्वच्छीकरण आदि को आवश्यकता नहीं रहती। 'ब्रह्मचारी सदा शुचिः' इस कथन के अनुसार ब्रह्मचारी सदैव पवित्र होता है, उसे जल से पवित्र होने की आवश्यकता नहीं / स्नान काम के आठ अंगों में एक अंग माना गया है। जैसे गाय भैस आदि पशु रूखा-सूखा, स्नेहहीन और परिमित पाहार करते हैं, अतएव उनके दाँत विना धोये ही स्वच्छ रहते हैं, उसी प्रकार अन्त-प्रान्त और परिमित आहार करने वाले मुनि के दांतों को भी धोने की आवश्यकता नहीं होती। अभिप्राय यही है कि ब्रह्मचर्य के पूर्ण आराधक को शास्त्रोक्त सभी विधि-निषेधों का अन्तःकरण से, आत्मशोधन के उद्देश्य से पालन करना चाहिए। ऐसा करने पर ही उसका यह महाव्रत सुरक्षित रहता है। सुरक्षित ब्रह्मचर्य के अलौकिक तेज से साधक की समग्र साधना तेजोमय बन जाती है, उसकी आन्तरिक अद्भुत शक्तियाँ चमक उठती हैं और प्रात्मा तेजःपुञ्ज बन जाता है। ऐसी स्थिति में ही सुरेन्द्र, असुरेन्द्र और नागेन्द्र साधक के चरणों में नतमस्तक होते हैं / पाँच भावनाओं के रूप में आगे भी ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के उपायों का प्ररूपण किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org