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________________ 220] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : यु. 2, अ. 4 तीन योग से विशुद्ध-सर्वथा निर्दोष ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए और वह भी जीवनपर्यन्त, मृत्यु के आगमन तक। इस प्रकार भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्यव्रत का कथन किया है। विवेचन-इन बत्तीस उपमानों द्वारा ब्रह्मचर्य की श्रेष्ठता स्थापित की गई है। प्राशय सुगम है। महाव्रतों का मूल : ब्रह्मचर्य१४३–तं च इमं पंच महव्वयसुन्वयमूलं, समणमणाइलसाहुसुचिण्णं / वेरविरामणपज्जवसाणं, सव्वसमुद्दमहोदहितित्थं // 1 // १४३–भगवान् का वह कथन इस प्रकार का है यह ब्रह्मचर्य व्रत पांच महाव्रतरूप शोभन व्रतों का मूल है, शुद्ध प्राचार या स्वभाव बाले मुनियों के द्वारा भावपूर्वक सम्यक प्रकार से सेवन किया गया है, यह वैरभाव की निवृत्ति और उसका अन्त करने वाला है तथा समस्त समुद्रों में स्वयंभूरमण समुद्र के समान दुस्तर किन्तु तैरने का उपाय होने के कारण तीर्थस्वरूप है। विवेचन-उल्लिखित गाथा में ब्रह्मचर्य की महिमा प्रतिपादित की गई है / ब्रह्मचर्य पाँचों महाव्रतों का मूलाधार है, क्योंकि इसके खण्डित होने पर सभी महाव्रतों का खण्डन हो जाता है और इसका पूर्णरूपेण पालन करने पर ही अन्य महावतों का पालन सम्भव है / __जहाँ सम्पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य का पालन होता है, वहाँ वैर-विरोध का स्वतः अन्त हो जाता है / यद्यपि इसके विशुद्ध पालन करने के लिए धैर्य, दृढ़ता एवं संयम की आवश्यकता होती है, अतीव सावधानी बरतनी पड़ती है तथापि इसका पालन करना अशक्य नहीं है। मुनियों ने इसका पालन किया है और भगवान ने इसके पालन करने का उपाय भी बतलाया है। भव-सागर को पार करने के लिए यह महाव्रत तीर्थ के समान है। गाथा में प्रयुक्त 'पंचमहव्वयसुब्बयमूलं' इस पद के अनेक अर्थ होते हैं, जो इस प्रकार है(१) अहिंसा, सत्य आदि महाव्रत नामक जो सुव्रत हैं, उनका मूल / (2) पाँच महाव्रतों वाले साधुओं के सुवतों शोभन नियमों का मूल / (3) पाँच महावतों का तथा सुव्रतों अर्थात् अणुव्रतों का मूल और (4) हे पंचमहाव्रत ! अर्थात् हे पाँच महाव्रतों को धारण करने के कारण सुनत-- शोभन व्रतवाले (शिष्य ! ) यह ब्रह्मचर्य मूल (व्रत) है। १४४–तित्थयरेहि सुदेसियमग्गं, गरयतिरिच्छविवज्जियमग्गं / सव्वपवित्तिसुणिम्मियसारं, सिद्धिविमाणअवंगुयदारं // 2 // १४४-तीर्थंकर भगवन्तों ने ब्रह्मचर्य व्रत के पालन करने के मार्ग—उपाय—गुप्ति आदि, भलीभाँति बतलाए हैं। यह नरकगति और तिर्यञ्चगति के मार्ग को रोकने वाला है, अर्थात् ब्रह्मचर्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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