________________ 194] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्र. 2, अ. 2 करने में समर्थ नहीं होता। अतएव (किसी मनुष्य, पशु-पक्षी या देवादि अन्य निमित्त के द्वारा जनित अथवा आत्मा द्वारा जनित) भय से. व्याधि-कृष्ठ आदि से, ज्वर आदि रोगों से, वद्धावस्था से, मृत्य से या इसी प्रकार के अन्य इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग आदि के भय से डरना नहीं चाहिए। इस प्रकार विचार करके धैर्य-चित्त की स्थिरता अथवा निर्भयता से भावित अन्तःकरण वाला साधु हाथों, पैरों, नेत्रों और मुख से संयत, शूर एवं सत्य तथा आर्जवधर्म से सम्पन्न होता है। पाँचवों भावना-हास्य-त्याग १२६-पंचमर्ग-हासं ण सेवियव्वं अलियाई असंतगाई जंपति हासइत्ता / परपरिभवकारणं च हासं, परपरिवायप्पियं च हासं, परपीलाकारगं च हासं, भेयविमुत्तिकारगं च हासं, अण्णोण्णजणियं च होज्ज हासं, अण्णोण्णगमणं च होज्ज मम्म, अण्णोण्णगमणं च होज्ज कम्म, कदंप्पाभियोगगमणं च होज्ज हासं, आसुरियं किग्विसत्तणं च जणेज्ज हासं, तम्हा हासं ण सेवियन्वं / एवं मोणेण भाविओ भवइ अंतरप्पा संजयकर-चरण-णयण-वयणो सूरो सच्चज्जवसंपण्णो। १२६--पाँचवीं भावना परिहासपरिवर्जन है। हास्य का सेवन नहीं करना चाहिए। हँसोड़ व्यक्ति अलीक-दूसरे में विद्यमान गुणों को छिपाने रूप और असत्-अविद्यमान को प्रकाशित करने वाले या अशोभनीय और अशान्तिजनक वचनों का प्रयोग करते हैं। परिहास दूसरों के परिभवअपमान-तिरस्कार का कारण होता है / हँसी में परकीय निन्दा-तिरस्कार ही प्रिय लगता है। हास्य परपीडाकारक होता है। हास्य चारित्र का विनाशक, शरीर की आकृति को विकृत करने वाला है और मोक्षमार्ग का भेदन करने वाला है। हास्य अन्योन्य—एक दूसरे का परस्पर में किया हुआ होता है, फिर परस्पर में परदारगमन आदि कुचेष्टा मर्म का कारण होता है। एक दूसरे के मर्मगुप्त चेष्टायों को प्रकाशित करने वाला बन जाता है, हँसी-हँसी में लोग एक दूसरे की गुप्त चेष्टाओं को प्रकट करके फजीहत करते हैं। हास्य कन्दर्प-हास्यकारी अथवा आभियोगिक-आज्ञाकारी सेवक जैसे देवों में जन्म का कारण होता है। हास्य असुरता एवं किल्विषता उत्पन्न करता है, अर्थात् साधु तप और संयम के प्रभाव से कदाचित् देवगति में उत्पन्न हो तो भी अपने हँसोड़पन के रण निम्न कोटि के देवों में उत्पन्न होता है। वैमानिक आदि उच्च कोटि के देवों में नहीं उत्पन्न होता / इस कारण हँसी का सेवन नहीं करना चाहिए। इस प्रकार मौन से भावित अन्तःकरण वाला साधु हाथों, पैरों, नेत्रों और मुख से संयत होकर शूर तथा सत्य और आर्जव से सम्पन्न होता है। विवेचन उल्लिखित पाँच (122 से 126) सूत्रों में अहिंसामहाव्रत के समान सत्यमहावत की पाँच भावनाओं का प्रतिपादन किया गया है, जो इस प्रकार हैं-(१) अनुवीचिभाषण (2) क्रोध का त्याग–अक्रोध (3) लोभत्याग या निर्लोभता (4) भयत्याग या निर्भयता और (5) परिहासपरिहार या हँसी-मजाक का त्याग / वाणीव्यवहार मानव की एक महत्त्वपूर्ण विशिष्टता है। पशु-पक्षी भी अपनी-अपनी वाणी से बोलते हैं किन्तु मानव की वाणी की अर्थपरकता या सोद्देश्यता उनकी वाणी में नहीं होती। अतएव व्यक्त वाणी मनुष्य की एक अनमोल विभूति है / वाणी की यह विभूति मनुष्य को अनायास प्राप्त नहीं होती। एकेन्द्रिय पृथ्वीकायिक आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org