________________ सत्य की महिमा] [189 प्रकाशमान है, क्योंकि वह मूर्त-अमूर्त आदि समस्त पदार्थों को अविकल रूप से प्रकाशित करता है। शरत्कालीन व्योम से भी अधिक निर्मल है, क्योंकि वह कालुष्यरहित है और गन्धमादन पर्वतों से भी अधिक सौरभमय है। ऐसा सत्य भी वर्जनीय ___ जो वचन तथ्य- वास्तविक होने पर भी किसी प्रकार अनर्थकर या हानिकर हो, वह वर्जनीय है / यथा-- 1. जो संयम का विघातक हो। 2. जिसमें हिंसा या पाप का मिश्रण हो। 3. जो फूट डालने वाला, वृथा बकवास हो, आर्यजनोचित न हो। 4. अन्याय का पोषक हो, मिथ्यादोषारोपणरूप हो। 5. जो विवाद या विडम्बनाजनक हो, धृष्टतापूर्ण हो / 6. जो लोकनिन्दनीय हो। 7. जो भलीभांति देखा, सुना या जाना हुया न हो। 8. जो प्रात्मप्रशंसा और पर्रानन्दारूप हो। 6. जो द्रोहयुक्त, द्विधापूर्ण हो। 10. जिससे शिष्टाचार का उल्लंघन होता हो / 11. जिससे किसी को पीड़ा उत्पन्न हो। ऐसे और इसी कोटि के अन्य वचन तथ्य होने पर भी बोलने योग्य नहीं हैं / सत्य के दस प्रकारमूल पाठ में निर्दिष्ट दस प्रकार के सत्य का स्वरूप इस प्रकार है जणवय-सम्मय-ठवणा नामे-रूवे पडुच्चसच्चे य / ववहार-भाव-जोगे, दसमे अोवम्मसच्चे य / / ' 1. जनपदसत्य—जिस देश-प्रदेश में जिस वस्तु के लिए जो शब्द प्रयुक्त होता हो, वहाँ उस वस्तु के लिए उसी शब्द का प्रयोग करना, जैसे माता को 'आई' कहना, नाई को 'राजा' कहना। 2. सम्मतसत्य-बहुत लोगों ने जिस शब्द को जिस वस्तु का वाचक मान लिया हो, जैसे 'देवी' शब्द पटरानी का वाचक मान लिया गया है / अतः पटरानी को 'देवी' कहना सम्मतसत्य है / 3. स्थापनासत्य-जिसकी मूर्ति हो उसे उसी के नाम से कहना, जैसे-इन्द्रमूर्ति को इन्द्र कहना या शतरंज की गोटों को हाथी, घोड़ा आदि कहना। 4. नामसत्य---जिसका जो नाम हो उसे गुण न होने पर भी उस शब्द से कहना, जैसे कुल की वद्धि न करने वाले को भी 'कलवर्द्धन' कहना। 5. रूपसत्य-साधु के गुण न होने पर भी वेषमात्र से असाधु को साधु कहना / 1. दशवकालिक हारिभद्रीय वृत्ति, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org