________________ 186] [प्रश्नध्याकरणसूत्र : श्र. 2, अ. 2 नहीं हैं। सत्य का ऐसा प्रभाव है कि भंवरों से युक्त जल के प्रवाह में भी मनुष्य बहते नहीं हैं, मरते नहीं हैं, किन्तु थाह पा लेते हैं। सत्य के प्रभाव से जलती हुई अग्नि के भयंकर घेरे में पड़े हुए मानव जलते नहीं हैं / सत्यनिष्ठ सरलहृदय वाले सत्य के प्रभाव से तपे-उबलते हुए तेल, रांगे, लोहे और सीसे को छू लेते हैं, हथेली पर रख लेते हैं, फिर भी जलते नहीं हैं। मनुष्य पर्वत के शिखर से गिरा दिये जाते हैं नीचे फेंक दिये जाते हैं, फिर भी (सत्य के प्रभाव से) मरते नहीं हैं। सत्य के (सुरक्षा-कवच को) धारण करने वाले मनुष्य चारों ओर से तलवारों के घेरे मेंतलवार-धारकों के पीजरे में पड़े हुए भी अक्षत-शरीर संग्राम से (सकुशल) बाहर निकल आते हैं। सत्यवादी मानव वध, बन्धन सबल प्रहार और घोर वैर-विरोधियों के बीच में से मुक्त हो जाते हैं-~-बच निकलते हैं। सत्यवादी शत्रुओं के घेरे में से बिना किसी क्षति के सकुशल बाहर आ जाते हैं। सत्य वचन में अनुरागी जनों का देवता भी सान्निध्य करते हैं उसके साथ रह कर उनकी सेवा-सहायता करते हैं। तीर्थकरों द्वारा भाषित सत्य भगवान दस प्रकार का है / इसे चौदह पूर्वो के ज्ञाता महामुनियों ने प्राभूतों (पूर्वगत विभागों) से जाना है एवं महर्षियों को सिद्धान्त रूप में दिया गया है साधुनों के द्वितीय महाव्रत में सिद्धान्त द्वारा स्वीकार किया गया है / देवेन्द्रों और नरेन्द्रों ने इसका अर्थ कहा है अथवा देवेन्द्रों एवं नरेन्द्रों को इसका अर्थ तत्त्वरूप से कहा गया है। यह सत्य वैमानिक देवों द्वारा समथित एवं आसेवित है / महान् प्रयोजन वाला है। यह मंत्र औषधि और विद्याओं की सिद्धि का कारण है-सत्य के प्रभाव से मंत्र और विद्यानों की सिद्धि होती है। यह चारण (विद्याचारण, जंघाचारण) आदि मुनिगणों की विद्याओं को सिद्ध करने वाला है। मानवगणों द्वारा वंदनीय है-- स्तवनीय है, अर्थात् स्वयं सत्य तथा सत्यनिष्ठ पुरुष मनुष्यों की प्रशंसा-स्तुति का पात्र बनता है। इतना ही नहीं, सत्यसेवी मनुष्य अमरगणों-देवसमूहों के लिए भी अर्चनीय तथा असुरकुमार आदि भवनपति देवों द्वारा भी पूजनीय होता है / अनेक प्रकार के पाषंडी-व्रतधारी इसे धारण करते हैं। इस प्रकार की महिमा से मण्डित यह सत्य लोक में सारभूत है / महासागर से भी गम्भीर है। सुमेरु पर्वत से भी अधिक स्थिर-अटल है। चन्द्रमण्डल से भी अधिक सौम्य-प्राह्लादक है। सूर्य | अधिक दीप्ति से देदीप्यमान है। शरत-काल के प्राकाश तल से भी अधिक विमल है। गन्धमादन (गजदन्त गिरिविशेष) से भी अधिक सुरभिसम्पन्न है / लोक में जो भी समस्त मंत्र हैं, वशीकरण आदि योग हैं, जप हैं, प्रज्ञप्ति प्रति विद्याएँ हैं, दस प्रकार के ज़भक देव हैं, धनुष आदि अस्त्र हैं, जो भी सत्थ-तलवार आदि शस्त्र अथवा शास्त्र हैं, कलाएँ हैं, आगम हैं, वे सभी सत्य में प्रतिष्ठित हैं-सत्य के हो आश्रित हैं। किन्तु जो सत्य संयम में बाधक हो–रुकावट पैदा करता हो, वैसा सत्य तनिक भी नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org