________________ अहिंसा महाव्रत की प्रथम भावना : ईर्यासमिति] [73 प्रकृष्टं वचनं यस्य असौ प्रवचनः अर्थात् जिनका वचन प्रकृष्ट-अत्यन्त उत्कृष्ट हो / इस व्युत्पत्ति के अनुसार वीतराग देव प्रवचन हैं। प्रकृष्टं वचनं प्रवचनम् अर्थात् श्रेष्ठ वचन ही प्रवचन है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार शास्त्र प्रवचन कहलाता है। प्रकृष्टस्य वचनं प्रवचनम् ---अर्थात् श्रेष्ठ पुरुष का वचन प्रवचन है। इस व्युत्पत्ति से गुरु को भी प्रवचन कहा जा सकता है / इस प्रकार प्रवचन शब्द देव, शास्त्र और गुरु, इन तीनों का वाचक हो सकता है / प्रस्तुत में 'पावयण' (प्रवचन) शब्द आगमवाचक है। किसी वस्तु को प्रमाण से परीक्षा करना न्याय कहलाता है। भगवान् का प्रवचन न्याययुक्त है, इस विशेषण से यह ध्वनित किया गया है कि भगवत्प्रवचन प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों से अबाधित है / बाधायुक्त वचन प्रवचन नहीं कहलाता / __ यह वीतराग और सर्वज्ञ द्वारा कथित प्रवचन वर्तमान जीवन में, आगामी भव में और भविष्यत् काल में भी कल्याणकारी है और मोक्ष का सरल-सीधा मार्ग है / अहिंसा महाव्रत की प्रथम भावना : ईर्यासमिति ११३–तस्स इमा पंच भावणाओ पढमस्स क्यस्स होति-- पाणाइवायवेरमण-परिरक्खणट्टयाए पढमं ठाण-गमण-गुणजोगजुजणजुगंतरणिवाइयाए दिट्टीए ईरियव्वं कीड-पयंग-तस-थावर-क्ष्यावरेण णिच्चं पुप्फ-फल-तय-पवाल-कंद-मूल-दग-मट्टियबीय-हरिय-परिवज्जिएण सम्म। एवं खलु सव्वपाणा ण हीलियन्वा, ण णिदियवा, ण गरहियव्वा, ण हिसियन्वा, ण छिदियव्वा, ण भिदियव्वा, ण वहेयन्वा, ण भयं दुश्खं च किंचि लब्भा पावेलं, एवं ईरियासमिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा असबलमसंकिलिटुणिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू। ११३–पाँच महाव्रतों-संवरों में से प्रथम महाव्रत की ये-आगे कही जाने वाली--पाँच भावनाएँ प्राणातिपातविरमण अर्थात् अहिंसा महाव्रत की रक्षा के लिए हैं। खड़े होने, ठहरने और गमन करने में स्व-पर की पीड़ारहितता गुणयोग को जोड़ने वाली तथा गाड़ी के युग (जूवे) प्रमाण भूमि पर गिरने वाली दृष्टि से अर्थात् लगभग चार हाथ आगे की भूमि पर दृष्टि रख कर निरन्तर कीट, पतंग, त्रस, स्थावर जीवों की दया में तत्पर होकर फूल, फल, छाल, प्रवाल-पत्ते कोंपल-कंद, मूल, जल, मिट्टी, बीज एवं हरितकाय-दूब आदि को (कुचलने से) बचाते हुए, सम्यक् प्रकार से---यतना के साथ चलना चाहिए। इस प्रकार चलने वाले साधु को निश्चय ही समस्त अर्थात् किसी भी प्राणी की हीलना-उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, निन्दा नहीं करनी चाहिए, गर्हा नहीं करनी चाहिए। उनकी हिंसा नहीं करनी चाहिए, उनका छेदन नहीं करना चाहिए, भेदन नहीं करना चाहिए, उन्हें व्यथित नहीं करना चाहिए। इन पूर्वोक्त जीवों को लेश मात्र भी भय या दुःख नहीं पहुँचाना चाहिए। इस प्रकार (के आचरण) से साधु ईर्यासमिति में मन, वचन, काय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org