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________________ अहिंसा के विशुद्ध दृष्टा और आराधक] [167 को प्रकट करना है / आशय यही है कि अहिंसा से प्राणीमात्र का क्षेम-कुशल ही होता है, किसी का अक्षेम नहीं होता। अहिंसा के विशुद्ध दृष्टा और पाराधक १०९-एसा भगवई अहिंसा जा सा अपरिमिय-णाणदंसणधरेहि सोल-गुण-विणय-तव-संयमणायगेहि तित्थयरेहि सध्वजगजीववच्छलेहि तिलोयमहिएहि जिणवरेहि (जिणचंदेहि) सुदिट्ठा, ओहिजिणेहिं विण्णाया, उज्जुमईहि विविट्ठा, विउलमईहि विदिआ, पुव्वधरेहिं अहीया, वेउव्वीहि पतिण्णा, आभिणिबोहियणाणोहि सुयणाणीहि मणपज्जवणाणोहि केवलणाणीहि आमोसहिपहि खेलोसहिपतेहि जल्लोसहिपतेहि विप्पोसहिपहि सम्वोसहिपत्तेहिं बोयबुद्धीहि कुट्ठबुद्धीहि पयाणुसारोहि संभिण्णसोएहि सुयधरेहि मणबलिएहि क्यलिएहि कायलिएहि णाणबलिएहि सणबलिएहि चरित्तबलिएहि खीरासहिं महुआसवेहि सप्पियासवेहिं अक्खीणमहाणसिएहि चारणेहिं विज्जाहरेहि / चउत्थभत्तिपहिं एवं जाव छम्मासभत्तिएहि उक्खित्तचरहिं णिक्खित्तचरहिं अंतचरएहि पंतचरहिं लूहचरएहि समुयाणचरएहि अण्णइलाएहि मोणचरहि संसट्ठकप्पिएहि तज्जायसंसट्ठकप्पिएहि उपणिएहि सुद्ध सणिएहि संखादत्तिहि दिटुलाभिएहिं पुट्ठलाभिएहि आयंबिलिएहि पुरिमड्डिएहि एक्कासणिएहि णिविइहि भिण्णपिंडवाइएहि परिमियपिंडवाइएहि अंताहारेहिं पंताहारेहि अरसाहारेहिं विरसाहारेहि लूहाहारेहि तुच्छाहारेहिं अंतजीवोहिं पंतजीवीहि लूहजीविहिं तुच्छजीवीहिं उवसंतजीवीहि पसंतजीवीहि विवित्तजीवीहि अखोरमहुसप्पिएहि अमज्जमंसासिएहि ठाणाइएहि पडिमंठाईहिं ठाणुक्कडिएहि वीरासणिएहि सज्जिएहि डंडाइहि लगंडसाईहिं एगपासगेहि आयावएहि अप्पावहि अणिठ्ठभएहि अकंड्यहिं धुयकेसमंसुलोमणएहि सव्वगायपडिकम्मविप्पमुक्केहि समणुचिण्णा, सुयहरविइयत्थकायबुद्धीहि / धीरमइबुद्धिणो य जे ते आसीविसउग्गतेयकप्पा णिच्छयववसायपज्जत्तकयमईया णिच्चं सज्झायज्झाणअणुबद्धधम्मज्झाणा पंचमहन्वयचरित्तजुत्ता समिया समिइसु, समियपावा छव्विहजगवच्छला णिच्चमप्पमत्ता एएहि अण्णेहि य जा सा अणुपालिया भगवई / १०६-यह भगवती अहिंसा वह है जो अपरिमित–अनन्त केवलज्ञान-दर्शन को धारण करने वाले, शीलरूप गुण, विनय, तप और संयम के नायक-इन्हें चरम सीमा तक पहुंचाने वाले, तीर्थ की संस्थापना करने वाले प्रवर्तक, जगत् के समस्त जीवों के प्रति वात्सल्य धारण करने वाले, त्रिलोकपूजित जिनवरों (जिनचन्द्रों) द्वारा अपने केवलज्ञान-दर्शन द्वारा सम्यक् रूप में स्वरूप, कारण और कार्य के दृष्टिकोण से निश्चित की गई है। विशिष्ट अवधिज्ञानियों द्वारा विज्ञात की गई है-ज्ञपरिज्ञा से जानी गई और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से सेवन की गई है / ऋजुमति-मनःपर्यवज्ञानियों द्वारा देखी-परखी गई है। विपुलमति-मन:पर्यायज्ञानियों द्वारा ज्ञात की गई है। चतर्दश पूर्वश्रत के धारक मनियों ने इसका अध्ययन किया है। विक्रियालब्धि के धारकों ने इसका आजीवन पालन किया है। प्राभिनिबोधिक-मतिज्ञानियों ने, श्रु तज्ञानियों ने, अवधिज्ञानियों ने, मनःपर्यवज्ञानियों ने, केवलज्ञानियों ने, ग्रामर्षीषधिलब्धि के धारक, श्लेष्मौषधिलब्धिधारक, जल्लौषधिलब्धिधारकों. डौषधिलब्धिधारकों, सीषिधिलब्धिप्राप्त, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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