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________________ 162] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : शु. 2, अ. 1 42 संवरो य 43 गुत्ती 44 ववसाओ 45 उस्सओ 46 जण्णो 47 आययणं 48 जयणं 49 अप्पमाओ 50 अस्साओ 51 वीसाओ 52 अभओ 53 सव्वस्स वि अमाधाओ 54 चोक्ख 55 पवित्ता 56 सूई 57 पूया 58 बिमल 59 पभासा य 60 णिम्मलयर त्ति एवमाईणि णिययगुणणिम्मियाहं पज्जवणामाणि होति अहिंसाए भगवईए। __१०७-उन (पूर्वोक्त) पाँच संवरद्वारों में प्रथम संवरद्वार अहिंसा है / अहिंसा के निम्नलिखित नाम हैं.... (1) द्वीप-त्राण-शरण-गति-प्रतिष्ठा-यह अहिंसा देवों, मनुष्यों और असुरों सहित समग्र लोक के लिए-द्वीप अथवा दीप (दीपक) के समान है--शरणदात्री है और हेयोपादेय का ज्ञान कराने वाली है / त्राण है-विविध प्रकार के जागतिक दुःखों से पीडित जनों की रक्षा करने वाली है, उन्हें शरण देने वाली है, कल्याणकामी जनों के लिए गति--गम्य है-प्राप्त करने योग्य है तथा समस्त गुणों एवं सुखों का आधार है / (2) निर्वाण-मुक्ति का कारण, शान्तिस्वरूपा है / (3) निवृत्ति-दुनिरहित होने से मानसिक स्वस्थतारूप है। (4) समाधि-समता का कारण है। (5) शक्ति---प्राध्यात्मिक शक्ति या शक्ति का कारण है / कहीं-कहीं 'सत्ती' के स्थान पर 'संतो' पद मिलता है, जिसका अर्थ है-शान्ति / अहिंसा में परद्रोह की भावना का अभाव होता है, अतएव वह शान्ति भी कहलाती है। (6) कोत्ति-कोत्ति का कारण है। (7) कान्ति-अहिंसा के आराधक में कान्ति--तेजस्विता उत्पन्न हो जाती है, अतः वह कान्ति है। (8) रति--प्राणीमात्र के प्रति प्रीति, मैत्री, अनुरक्ति-प्रात्मीयता को उत्पन्न करने के कारण वह रति है। (6) विरति-पापों से विरक्ति / (10) श्रुताङ्ग समीचीन श्रुतज्ञान इसका कारण है, अर्थात् सत्-शास्त्रों के अध्ययन-मनन से अहिंसा उत्पन्न होती है, इस कारण इसे श्रुतांग कहा गया है / (11) तृप्ति-सन्तोषवृत्ति भी अहिंसा का एक अंग है। (12) दया-कष्ट पाते हुए, मरते हुए या दुःखित प्राणियों की करुणाप्रेरित भाव से रक्षा करना, यथाशक्ति दूसरे के दुःख का निवारण करना। (13) विमुक्ति-बन्धनों से पूरी तरह छुड़ाने वाली। (14) क्षान्ति क्षमा, यह भी अहिंसारूप है। (15) सम्यक्त्वाराधना-सम्यक्त्व की आराधना-सेवना का कारण / (16) महती समस्त व्रतों में महान्—प्रधान-जिनमें समस्त व्रतों का समावेश हो जाए। (17) बोधि--धर्मप्राप्ति का कारण / (18) बुद्धि-बुद्धि को सार्थकता प्रदान करने वाली। (16) धृति-चित्त की धीरता--दृढता / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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